बेटी हूं फिर क्यूं कहते मैं पराई हूं

बेटी हूं फिर क्यूं कहते मैं पराई हूं 













बेटी हूं फिर क्यूं कहते मैं पराई हूं
खुशियां अपार आंगन में तेरे लाई हूं
ब्याह कर कैसे भूल सकते हो मुझको
आखिर तुम्हारी ही तो मैं परछाई हूं
बेटी हूं फिर क्यूं कहते मैं पराई हूं

मां  तुम ही बूझो क्या है ये पहेली
बचपन से तुम ही हो मेरी सहेली
आखिर घर ये क्यों ना मेरा अपना
जिसके आंगन में अभी तक मैं खेली
मां  तुम ही बूझो क्या है ये पहेली

जीवन का सलीका तुमने ही सिखलाया
मेरी मुसीबतों का भार तुमने ही उठाया
संसार ये कैसा है तुमने ही बतलाया है
फिर स्वांग ये अजीब किसने रचाया है
आखिर पराया घर किसने बनाया है

बाबुल तुम्हारे कंधों पर देखी ये दुनिया
न आने दी जीवन में  तुमने कठिनाइयां
आखिर कलेजे का टुकड़ा हूं मैं तुम्हारे
मिला  तुमसे हौसला छू लूं सारी ऊंचाईयां
जब से बाबुल तुम्हारे कंधों पर देखी दुनिया

दुनिया में सबसे तुमको थी मैं प्यारी
कहते थे मुझसे जान हूं मैं तुम्हारी
फिर कैसे कर सकते खुद से जुदा मुझको
जुदाई की ये सजा क्यों मिलती हम सबको   
आखिर कैसी औपचारिकताएं है ये सारी

जिस आंगन में मैनें सपनों को संजोया
रिश्तों के अनमोल मोतियों को पिरोया
ये सोच ही आंख मेरी अश्कों से भर आती
दुनिया ने कैसा रिश्तों का बीज है ये बोया
जिससे बचपन के रिश्तों को मैंने खोया

मुश्किल है इस दस्तूर को समझ पाना
समझ जाए कोई तो हमको भी समझाना
सब कहते हैं कि बहुत कुछ पाया है हमने
समझो दस्तूर निभाने से क्या गवाया है हमने
ये कैसा रस्म और रिवाज बनाया है तुमने

किसे कहूं अपना और समझूं किसे पराया
किसी बेटी को न ये समझ आया
आज बैठी हूं तो यही सोंचती हूं
आखिर जुदाई का दस्तूर ही क्यूं बनाया
जाने किसने रची है ये अनोखी माया

दुनिया में सबसे दयालू हूं मैं
फिर पता नहीं क्यूं किसी पर भारू हूं मैं
समझ सके कोई तो इस बात को समझे
अपने आप में एक बड़ी सच्चाई हूं मैं
बेटी हूं फिर क्यूं कहते पराई हूं मैं

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