आरक्षण: व्यवस्था या समस्या

  आरक्षण - व्यवस्था या समस्या..?

हमारे देश में आरक्षण को लेकर विवाद कोई नई बात नहीं है। जबकि अब आज की वर्तमान स्थितियों को देखते हुए आरक्षण  की व्यवस्था में बदलाव लाने की जरूरत है। नहीं तो इसमें कोई दो राय नहीं आने वाली पीढ़ी भी इसके दुष्प्रभाव से बच नहीं पाएगी। आरक्षण की आग में हमारा देश पहले भी जल रहा था और आज भी उसी आग में सुलग रहा है। कहीं कोई आरक्षण को लेकर विरोध करता है तो कहीं कोई उस के पक्ष में खड़े होकर उसका समर्थन करता है। जिसके कारण हमेशा विकट परिस्थितियां उत्पन्न होती आई हैं। आरक्षण की शुरुआत देश के विभिन्न समुदायों के बीच के स्तर को समान करने के लिए की गई थी। लेकिन आज यह देश की जड़ों को खोखला कर रहा है, क्योंकि जिस उद्देश्य से इसे चालू किया गया था आज वो ही धूमिल होता दिख रहा है। आज आरक्षण के जरिए सभी नेता बस अपनी  राजनीति की रोटियां सेकने में लगे रहते हैं। वहीं गुजरात में पाटीदार की मांग पर पार्टियों की प्रतिक्रिया इस बात को साफ कर रही है। यहां तक की सरकार समय-समय पर लोगों की मांग पर इस व्यवस्था में अपने  अनुसार बदलाव भी करती रहती है। यदि आरक्षण में ऐसे ही बदलाव किया जाना है तो फिर इसको लेकर बने सभी प्रावधान व्यर्थ है।

वहीं राजस्थान में पांच अन्य पिछड़ी जातियों को भी आरक्षण देने के लिए विधेयक पारित किया इस विधेयक के तहत सरकारी संस्था व नौकरियों में पिछड़े वर्गों का आरक्षण 21% से बढ़ाकर 26% हो गया और कुल आरक्षण सीमा 50% से बढ़कर 54% हो गई। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की वैधानिक सीमा 50 फीसद कर रखी है तो राज्यों की ओर से आरक्षण सीमा बढ़ाने पर न्यायालय उसे खारिज भी कर सकता है। वहीं पाटीदार समुदाय के आरक्षण की मांग ने स्थितियों को और मुश्किल बना दिया। पाटीदार समुदाय की आरक्षण की मांग करना  सभी दलों के लिए चुनौती बन गया है। राजनीतिक दल इस समुदाय को नाराज भी नहीं करना चाहते हैं और दूसरी और ऐसी राह भी नहीं खोज पा रहे हैं जिससे समुदाय को आरक्षण दे सके। एक तरफ उन्हें इस बात का भय भी है कि उनका वोट बैंक ना चला जाए।और न ही कांग्रेस इस मांग को लेकर अपनी मंशा साफ कर रही है। वैसे यह बात समझ से परे है कि सभी पार्टियां कहती हैं कि वह देश के हित के लिए काम करती हैं लेकिन असल तस्वीर तो यही है कि वह सिर्फ वोट के लिए काम करती हैं। यदि वह देश के हित के लिए सोचती तो सही गलत में अंतर कर स्थितियों को संभाल सकती। पर वह तो ऐसी परिस्थितियों का बस फायदा उठाने की ताक में रहती हैं।

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नति में आरक्षण के मसले पर एक याचिका की सुनवाई करते हुए एक महत्वपूर्ण सवाल उठा की आखिर अनुसूचित जातियों और जनजातियों के आरक्षण में क्रीमी लेयर का प्रावधान क्यों नहीं है? यह एक तार्किक सवाल इसलिए भी है क्योंकि ओबीसी आरक्षण में उक्त प्रावधान शामिल है। ''क्रीमी लेयर'' का अर्थ है कि जो लोग आरक्षण कोटा प्रणाली में आते हैं यदि वह संपन्न और सक्षम हैं तो उन्हें आरक्षण का लाभ उठाने से रोका जाएगा। लेकिन इस बात को नकारते हुए अनुसूचित जातियों और जनजातियों में यदि लोग संपन्न भी हैं तब भी वह इसका फायदा उठाते हैं। 

वर्तमान में आरक्षण की जरूरत उन्हें है जो कि संपन्न नहीं है। फिर वह चाहे उच्च जाति के हो या पिछड़ी जाति के। इस बात से कोई अनजान नहीं है कि  सामान्य वर्ग के लोग भी संपन्नता के अभाव में प्रतिभा होते हुए भी आगे नहीं बढ़ पाते हैं। क्योंकि वह तो दो मार खाते हैं, एक अपनी गरीबी की और दूसरी कोटा प्रणाली के अंदर ना आने की।  ऐसे में उनके सामने ऐसा कोई विकल्प शेष नहीं रह जाता है जिससे की वह इस समस्या से निजात पा सके।

आरक्षण को शुरू करने का उद्देश्य केवल पिछड़े समुदायों तथा अनुसूचित जातियों और जनजातियों के स्तर को बराबर करना था। इन जातियों के लोग सरकारी सेवाओं और संस्थानों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं रखते थे इसलिए उनको आगे लाने के लिए इसकी व्यवस्था की गई। सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए भारत सरकार ने भारतीय कानून के जरिये सार्वजनिक तथा निजी शैक्षिक संस्थानों में पदों तथा सीटों के प्रतिशत को आरक्षित करने की कोटा प्रणाली प्रदान की है। 


पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने का एक कारण यह भी था कि वह उच्च स्तर के लोगों से संपन्नता के मामले में बहुत नीचे थे। उनके पास में शिक्षा हासिल करने के लिए उचित साधन नहीं होते थे जिनसे कि वह खुद पढ़ सके या अपने बच्चों को पढ़ा सके। इसके कारण वह नौकरियों में भी आगे नहीं बढ़ पाते थे। इसीलिए जब यह देखा गया कि सभी सरकारी उच्च पदों पर या शैक्षिक संस्थाओं में पिछड़ी जाति वालों की संख्या बहुत कम है तो उन्हें बराबरी का स्थान देने के लिए आरक्षण की शुरुआत की गई। आरक्षण के जरिए उन्हें कोटा प्रणाली में लाया गया जिसके तहत उन्हें स्कूल, कॅालेज की फीस और नौकरी में कुछ प्रतिशत की छूट दी जाने लगी। जिससे कि वह भी समाज में अपनी भागीदारी निभा सके।

वहीं जब आरक्षण की शुरुआत हुई तब तो यह उचित लगता था, क्योंकि उम्मीद थी कि इसके जरिए पिछड़ी जाति वालों को भी बराबरी का मौका मिल सकेगा और यह काफी हद तक  हुआ भी था। लेकिन अब वर्तमान स्थितियों से तुलना करें तो फिर वही परिस्थितियां उत्पन्न होने लगी हैं। बस अंतर यह है कि पहले शीर्ष पदों पर उच्च जाति के लोग थे लेकिन अब उनकी जगह ज्यादातर शीर्ष पदों पर अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोग स्थापित हैं। आज एक सामान्य वर्ग के व्यक्ति तथा अनुसूचित जाति के व्यक्ति में कोई फर्क नहीं रह गया है। वह भी उतने ही सक्षम और संपन्न हैं जितने कि सामान्य जाति के लोग। एक तरह से देखा जाए तो हमारे देश में आरक्षण के मापदंड सही नहीं हैं इसका लाभ लोगों को जातियों के आधार पर दिया जाता है। इससे देश की विकास यात्रा में भी कठिनाईंया उत्पन्न हो सकती हैं क्योंकि इसके जरिए कई प्रतिभाशाली लोग पीछे रह जाते हैं और वहीं आरक्षण का फायदा उठाते हुए अयोग्य लोग उनसे आगे बढ़ जाते हैं। साथ ही आरक्षण को लेकर एक सवाल यह भी उठता है कि दक्षता, प्रतिभा को नकारने वाली कोटा प्रणाली कहां तक उचित है।

आरक्षण की बात तब से सामने आई जब मोरारजी देसाई के नेतृत्व में बनी पहली गैर कांग्रेसी ने 20 दिसंबर, 1978 को बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल की अगुवाई में नए आयोग की घोषणा की। इस आयोग को मंडल आयोग के नाम से जाना गया। किस आयोग ने तमाम जातियों को सामाजिक,  शैक्षिक, आर्थिक कसौटियों पर परखने का काम किया। मंडल आयोग ने 12 दिसंबर,1980 को अपनी रिपोर्ट फाइनल किया तब तक मोरारजी देसाई की सरकार गिर चुकी थी और इंदिरा गांधी की सरकार आ चुकी थी। 

 मंडल आयोग के तमाम जातियों को परखने पर ये बात सामने आई कि देश में कुल 3,743 पिछड़ी जातियां हैं। पिछड़ी जातियां भारतीय जनसंख्या का आधे से ज्यादा हिस्सा थी। जो कि सामान्य वर्ग के लोगों से पीछे चल रही थी। इसीलिए  आयोग ने इसको दूर करने के लिए पिछडे़ वर्गों के लोगों को सरकारी नौकरियों में 27 फीसदी आरक्षण देने की सिफारिश की। भारत में अनुसूचित जाति-जनजाति को पहले से 22.5 प्रतिशत आरक्षण दिया जा रहा था। इसी कारण इंदिरा गांधी की सरकार इस सिफारिश को लागू करने से बचती रही।  मंडल आयोग की सिफारिश को लागू करने का मतलब था 49.5 प्रतिशत सीटें आरक्षित कर देना।  इंदिरा गांधी सरकार इसे लागू नहीं कर सकी। लेकिन आरक्षण की आग का धुआं तब तक पूरे देश में फैल चुका था। आरक्षण की शुरूआत में इसे रोकने के लिए देश के अलग-अलग शहरों में छात्रों ने विरोध प्रदर्शन किया, कई छात्रों ने आत्महत्या भी की। ऐसी कई गतिविधियां सामने आई। हालांकि तमाम आत्महत्याओं और विरोधों को दरकिनार करते हुए बी पी सिंह सरकार ने देश में आरक्षण लागू कर दिया गया।

अब इस बात की समीक्षा की जानी चाहिए कि बीते वर्षों में  अनुसूचित जनजाति के लोग आरक्षण पाकर किस हद तक संपन्नता के दायरे में आ गए हैं। यह देखा जाना चाहिए यदि वह आरक्षण का लाभ उठाकर सक्षम हो चुके हैं। तो फिर कब तक वह इसका पीढ़ी दर पीढ़ी फायदा उठाते रहेंगे।  वहीं जब शिक्षा संस्थानों में आरक्षण दिया जा रहा है तो नौकरियों में आरक्षण देने का क्या फायदा। क्या आज वर्तमान स्थितियों को देखते हुए आरक्षण प्रणाली में बदलाव की जरूरत नहीं है?   यह सोचने वाली बात है। अब इस पर गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है।















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