नक्सलवाद और आतंकवाद एक जटिल समस्या



नक्सलवाद और आतंकवाद एक जटिल समस्या बन चुकी है। यह दोनों ही देश की जड़ों को खोखला कर रहे  हैं। दोनों ही समस्याएं देश के लिए नासूर बनती जा रही है। आए दिन हो रहे हमले देश की सुरक्षा व्यवस्था पर भी सवालिया निशान लगा रहे हैं। यह दोनों वाद मिलकर देश की वादी को मैला कर रहे हैं।

         हाल ही में छत्तीसगढ़ के सुकमा में नक्सलियों ने सीआरपीएफ पर हमला किया, जिसमें 25 जवान शहीद हो गए। यह नक्सली अक्सर सीआरपीएफ के साथ खूनी खेल खेलने में सफल होते हैं। बहुत समय से कहा जा रहा है कि सीआरपीएफ को छापेमार लड़ाई का अनुभव नहीं है लेकिन इसके लिए कुछ किया नहीं जा रहा है। क्या यह कारण माना जा सकता है कि नक्सली हमेशा सीआरपीएफ को ही अपना निशाना बनाते हैं। क्योंकि वह बखूब ही  जानते हैं कि वह उनके हमले का जवाब नहीं दे पाएंगे। अगर ऐसा है तो इस बल को इसके लिए तैयार करना बहुत ही आवश्यक है। नहीं तो वहां नक्सली ऐसे ही सफल होते रहेंगे। नक्सली हमेशा अपने मंसूबों में कामयाब होते हैं तो इसका मात्र एक कारण है कि इनके दमन के लिए आवश्यक उपाय नहीं किए जा रहे हैं। नक्सलियों को खत्म करने के लिए आवश्यक राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है जोकि यहां देखने को नहीं मिलती है। अगर कुछ देखने को मिलता है तो सिर्फ जवानों की शहादत।

           छत्तीसगढ़ में हुए हमले में बहुत ही दिल दहलाने वाली स्थिति सामने आए आई। जिसने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। नक्सलियों में शामिल महिला नक्सलियों ने करीब 6 शहीद जवानों के गुप्तांग काट दिए। निश्चित ही यह अमानवीय कृत्य दिल दहलाने वाला है। ऐसे वारदात पहली बार सामने नहीं आई हैं पहले भी 2007 में बीजापुर जिले के सीएएफ कैंप पर नक्सलियों ने हमला किया था। जिसमें 55 जवान व एक एसपीओ शहीद हुए थे। उस समय नक्सलियों ने कुछ जवानों के धारदार हथियारों से सिर धड़ से अलग कर दिए थे। ऐसे ही टाहकवाड़ा मुठभेड़ में भी नक्सलियों ने जवानों के शव को धारदार हथियारों से काट दिया था। ऐसी बर्बरता देखने के बाद भी इनको रोकने के लिए कोई व्यापक कदम नहीं उठाया गया। और फिर एक वारदात सामने आ गई।

           ऐसे हमले देश को निश्चित ही शर्मिंदा करते हैं। हमेशा जब कुछ हो जाता है तो राजनीतिक पार्टियों में बहुत जोश देखने को मिलता है । वह कड़ी नीतियां बनाने का दावा करते हैं। लेकिन होता कुछ नहीं है कुछ समय के लिए बातें होती हैं और फिर सब अपने काम में लग जाते हैं। आखिर अगर कुछ करना ही है तो हमलों का इंतजार ही क्यों करते हैं? पहले से ही ऐसी नीतियों पर काम करना चाहिए जिनसे इन स्थितियों का सामना ही ना करना पड़े। लेकिन असल दशा कुछ और ही है।

          इस बात से कोई अपरिचित नहीं है कि नक्सलियों को निकट रह रहे ग्रामीणों कि मदद मिलती है। वह उनके मोहपाश में फंसे हुए या यूं कह लीजिए शायद वह मजबूर हैं। आखिर वह ग्रामीण क्यों मजबूर हैं? जिनकी मदद के हकदार वहां हमारी सुरक्षा में लगे जवान हैं। वह उन नक्सलियों की मदद करते हैं। उन्हीं की मदद से वह आए दिन जवानों पर हमला करते हैं। निश्चित ही उनके तंत्र से राज्य सरकार भी वाकिफ होगी। आखिर ऐसा क्यों है ? इसका मुख्य कारण यह है कि यह नक्सली स्थानीय निवासी हैं जिनकी उस इलाके में धाक है। क्या उन ग्रामीणों को सरकार पर भरोसा नहीं है? क्यों वे उन्हीं की सुरक्षा में लगे जवानों की जगह उन हिंसक नक्सलियों का साथ देते हैं? यहां पर सरकार को जरूरत है कि वह ग्रामीणों में यह विश्वास जगाएं की वह नक्सलियों का साथ ना दे। उनकी सुरक्षा का आश्वासन देते हुए उसका इंतजाम भी करना चाहिए। अगर नक्सलियों को ग्रामीणों की मदद मिलना बंद हो जाएगी तो बहुत हद तक उनकी गतिविधियों पर लगाम लग सकेगी। क्योंकि ग्रामीणों का इस्तेमाल कर वह सेना से संबंधित जानकारियां हासिल कर लेते हैं और ऐसी वारदातों को अंजाम देने में सफल होते हैं। लेकिन इसके लिए इंतजाम तो राज्य सरकार को ही करने होंगे।

         यह सरकार की लापरवाहियों का नतीजा है कि अक्सर नक्सली ऐसी वारदातों को अंजाम देने में सफल होते हैं। क्योंकि यह जानते हुए भी  की पिछले कई वर्षों से छत्तीसगढ़ का बस्तर नक्सलियों का गढ़ बना हुआ है। वहां कोई पुख्ता इंतजाम नहीं किए गए और ना ही इस पर कोई कड़े कदम उठाए गए हैं।  पिछले कई दशकों से छत्तीसगढ़ में दोरनापाल से जगरगुंडा की सड़क राज्य सरकार के लिए एक चुनौती बनी हुई है। इसी रास्ते पर 2010 में एक नक्सल  वारदात पहले भी हुई  थी जिसमें सीआरपीएफ के 76 जवान शहीद हुए थे। वहीं अब इस सड़क ने फिर 25 जवानों की बलि ले ली। जगरगुंडा के बासागुड़ा तक, दंतेवाड़ा के अरनपुर तक, और सुकमा के दोरनापाल तक तीन रास्ते हैं। दोरनापाल से जगरगुंडा सड़क तक की दूरी 56 किलोमीटर है। जिस पर पहले भी नक्सलियों ने कई वारदातों को अंजाम दिया है। 2008 में नक्सलियों ने सड़क काट दी थी। एक पार्टी गड्ढा पाटने निकली और नक्सलियों के एंबुश में फंस गई। जिसमें 12 जवान शहीद हो गए। अक्सर नक्सली इन रास्तों पर अपनी वारदातों को अंजाम देने में सफल होते हैं, क्योंकि वह यह जानते हैं कि इन रास्तों पर कोई पुख्ता प्रबंध नहीं किए गए हैं। जब तक इस सड़क का निर्माण ना होगा तब तक वह ऐसे ही सफल होते रहेंगे और हम अपने जवान ऐसे ही होते रहेंगे। नक्सली हिंसा से निपटने के लिए सरकार को आवश्यक इच्छाशक्ति दिखाते हुए कठोर नीतियों का निर्माण कर अपनी नीति में सुधार लाना चाहिए।

            इनके हौसले इतने बुलंद हैं कि यह खुले में भी वार करने की हिम्मत रखते हैं। मार्च के महीने में डोर्नपाल-जगरगुंडा निर्माणाधीन सड़क पर दो विशेष कोबरा टीमें तैनात थी। उनमें से एक टीम करीब 70 जवानों की टुकड़ी के साथ कार्यस्थल पर पोजीशन लेने निकली, जिस दौरान नक्सलियों ने उन्हें अपने हमले का शिकार बना लिया। ध्यान देने वाली बात इसमें यह है कि नक्सली घने जंगलों से छुपकर नहीं बल्कि खुलेआम सड़कों पर भी हमला करने से चूकते नहीं है। इससे तो साफ प्रतीत होता है कि इन्हें किसी का डर नहीं है।

             अभी सीआरपीएफ के उन 25 जवानों की चिता ठंडी भी नहीं हो पाई थी कि आतंकवादियों ने कश्मीर के कुपवाड़ा जिले में एक सैन्य शिविर पर हमला कर दिया। उस हमले में एक कैप्टन, एक जेसीओ व एक जवान शहीद हो गए। आखिर अक्सर हो रहे ऐसे हम लोग का कारण क्या है यह ढूंढने का प्रयास कोई नहीं करता है।
अक्सर ऐसी घटनाओं के बाद सरकारों की तरफ से अफसोस जताया जाता है, कई बयानबाजियां सामने आती हैं। यह देश के लिए  दुखद घटना है..... देश यह सब नहीं सहेगा......इसका जवाब जरूर दिया जाएगा..... शहीद के परिवार को कुछ राशि दी जाएगी..... ऐसी बहुत सी बातें होती है। लेकिन क्या इन बातों से वह उन जवानों के परिवार का चिराग लौटा पाएंगे? क्या वह उस बुझे चिराग को दोबारा रोशन कर सकते हैं? वह ऐसा नहीं कर सकते लेकिन इन सब को रोकने के लिए कुछ ठोस कदम जरूर उठा सकते हैं। ताकि जवानों को दोबारा ऐसी स्थितियों का सामना ना करना, देश को दोबारा यह मंजर ना देखना पड़े। जिसके सिर्फ वह प्रयास ही करते रह जाते हैं तब तक दोबारा एक घटना सामने आ जाती है।

           आखिर देश के जवानों को इन स्थितियों का सामना क्यों करना पड़ता है ? उनपर कभी आतंकवाद का हमला, तो कभी नक्सलवाद का, कभी अपने ही उन पर पत्थरबाजी करते हैं। क्या उन्हें देश की सुरक्षा के बदले यही मिलना चाहिए उनकी सुरक्षा का दायित्व कौन उठाएगा। आए दिन हो रही ऐसी घटनाओं से राज्य सरकार व केंद्र सरकार दोनों को ही सबक लेना चाहिए और एक उचित मार्ग तलाश कर ऐसी गतिविधियों की रोकथाम करनी चाहिए। इसके लिए कड़े निर्णयों की आवश्यकता है। इसके बाद ही शायद ऐसी स्थितियों से बचा जा सकता है।


सुनसान रास्तों पर भी जरूरत एंटी रोमियो दल की

                      सुनसान रास्तों पर भी जरूरत एंटी रोमियो दल की

हमारे देश में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर बातें पहले भी होती थी, आज भी होती हैं और आगे भी होती रहेंगी। क्योंकि उनकी सुरक्षा की सिर्फ बाते ही होती हैं। यहां महिला सशक्तीकरण को लेकर बहुत से भाषण होते हैं और अभियान भी चलाए जाते हैं। लेकिन वह कुछ समय बाद सिफर साबित होते हैं। हालही में एंटी रोमियो दल के गठन के बाद कुछ हद तक मंचलों पर लगाम कसी नजर आ रही थी, लेकिन आज भी सुनसान रास्तों पर वह अपनी हरकतों से बाज नहीं आते हैं।

यह सब जानते हैं कि हमारा समाज पुरुष प्रधान समाज है। महिलाओं का जीवन उन पर निर्भर रहता है। हालांकि आज हर क्षेत्र में महिलाएं तरक्की कर सशक्ती की मिशाल कायम कर रहीं हैं । लेकिन हर महिला तरक्की का हिस्सा नहीं बन पा रही हैं क्योंकि उस पर कहीं न कहीं अभी भी रूढ़वादी परम्परा थोपी जा रहीं हैं। कुछ परिवार की वजह से नहीं बढ पाती हैं, तो कुछ रास्तों में आवारा घूम रहे मनचलों के डर से निकलती ही नहीं हैं।  

जन्म के साथ ही महिलाओं की सीमाएं निश्चित कर दी जाती है।  बचपन से ही लड़की की कमान उसके माता पिता के हाथ में होती है और शादी के बाद भी यह कमान पुरूषों के हाथ में ही होती हैं बस कमान थामने वाले मुखौटें बदल जाते हैं। शादी होते ही उन्हे पराया मान लिया जाता है उनसे कह दिया जाता है कि अब तुम किसी और की जिम्मेदारी हो। हमेशा महिलाओं को यही समझाया जाता है कि शर्म, लाज उनका गहना है। असल में तो यह गहनें बेडियों के पर्यायवाची हैं।

उनके देर तक बाहर रहने और कपड़ों पर टिप्पणी तो अब आम हो चुकि है। अगर कोई लड़का उन्हें छेड़ दे तो लोग कहते हैं ऐसे कपड़े पहनोगी तो लोग तो छेड़ेंगे ही। यहां तक कि देश के कमान जिन नेताओं के हाथ में है वह भी नहीं चूकते हैं। 31 दिसंबर की रात को बेंगलुरु में जब लड़कियों के साथ छेड़छाड़ हुई थी, तब अबू आजमी ने कहा था 'जहां चीनी होगी,वहां चीटियां तो आएंगी ही' जब देश को चलाने वालों की मानसिकता ही ऐसी होगी तो बाकियों का क्या होगा।

आज हमारा समाज लड़कियों को क्या पहनना चाहिए ये निर्धारित करने लगा है।  अगर कपड़ों की वजह से ही लड़के छेड़ते हैं  या बुरी नजर से देखते हैं तो बुलंदशहर वाली घटना का क्या? उस समय तो वह परिवार छोटे या भद्दे कपड़ों में तो नहीं था ।  तो उन्हें इस हैवानियत का सामना क्यों करना पड़ा? असल में तो महिलाओं को लेकर लोगों की मानसिकता ही बहुत हद तक मैली हो चुकि है। वह उन्हें किसी भी रुप में आजाद ही नहीं देखना चाहते हैं।

महिलाओं का क्या कोई अस्तित्व नहीं है ? क्या उसका खुद का कोई जीवन नहीं है? क्यों उसे हमेशा यह बताया जाता है कि तुम्हें क्या करना है और क्या नहीं? हमारे देश में सुरक्षा के बारे में हमेशा महिलाओं को ही क्यों सोचना पड़ता है? ऐसे बहुत से सवाल हैं जिनका जवाब शायद मिलना मुश्किल है?

जिस देश में शक्ति का मतलब ही महिला है, वहां महिलाओं पर ही शक्ति दिखा लोग उसे कमजोर साबित करते हैं। शायद शक्ति का अस्तित्व ही खत्म होता जा रहा है। देश की यह दशा निश्चित ही दुर्भाग्यपूर्ण है। आए दिन महिलाओं को लेकर जाने कितने ही अपराध सामने आते हैं। कहीं दहेज के लिए उन्हें जला देना, कहीं भ्रूण हत्या कर उन्हें पैदा होने से पहले ही मार देना, कहीं उन्हें छेड़ कर उन की गरिमा को तार-तार करनाकहीं बलात्कार जैसी हैवानियत दिखाना। यहां तक कि उन्हे बेचने से भी नहीं चूकते हैं। आखिर हमारा देश किस दिशा की ओर बढ़ रहा है। सरकार चाहे कोई भी आए, कितने भी उपाय करे लेकिन हालात वैसे के वैसे बने रहते हैं।
महिलाओं की सुरक्षा को लेकर प्रयास तो बहुत किए जा रहे हैं। लेकिन यह प्रयास सफल होते नहीं दिख रहे हैं। योगी आदित्यनाथ ने महिलाओं की सुरक्षा के लिए एंटी रोमियो स्क्वायड  का गठन किया । एंटी रोमियो स्क्वायड का काम आवारा घूम रहे मनचलों को सबक सिखाना है। इनका असर स्कूल, कॉलेजों, चौराहों पर तो दिख रहा है।  लेकिन सुनसान रास्तों का क्या ? आज भी अगर महिलाओं को सुनसान रास्तों पर निकलना हो तो वह सौ बार सोचती हैं। महिलाओं की सुरक्षा के नजरिए से एंटी रोमियो दल का गठन सराहनीय है लेकिन इसका डर शोहदों में सिर्फ स्कूल-कॉलेजों के बाहर तक ही दिखता है। सुनसान रास्तों पर तो वह अपने को राजा समझ घूमते हैं। ऐसे दलों की जरूरत सुनसान रास्तों पर ज्यादा है। क्योंकि वहां कोई इंतजाम ना होने के कारण अक्सर घटनाएं सामने आती हैं। आज भी उनके हौसले सुनसान रास्तों पर बुलंद रहते हैं। प्रशासन को इस ओर ध्यान देते हुए सुनसान रास्तों पर भी कड़े इंतजाम करने चाहिए। ताकि इन मनचलों के हौसले पस्त हो सके और महिला आजादी के साथ घूम सके।

एंटी रोमियो स्क्वायड द्वारा उठाए गए कदमों से जहां कुछ सुधार हो रहे तो वहीं बेवजह लोग परेशान भी हो रहे हैं। शोहदों पर लगाम लग रही है लेकिन वहीं लोगों की परेशानियां भी बढ़ रहीं हैं। दल आवारा घूम रहे मनचलों के साथ साथ बेकसूर लोगों को भी परेशान करते पाए गए। रास्ते पर चल रहे लोग चाहे भाई बहन हों, प्रेमी युगल हों, या पति पत्नी सबको एक नजर से देखा जा रहा है । उनके साथ में इस तरह का व्यवहार किया जाता है कि मानो वह कोई गुनाहगार हो । ऐसी बहुत सी शिकायतें सामने आई साथ ही बहुत से वीडियो भी वायरल हुए जिसमें  इस दल की मनमानी साफ झलक रही है। इसका शिकार भी बेचारी महिलाएं ही हुई। उनकी वजह से उन्हें शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा। ऐसी सुरक्षा का क्या फायदा जिससे लोग सुरक्षित महसूस करने की जगह दहशत में जिएं।

वहीं अब इस समस्या को देखते हुए इन्हें आदेश दिया गया है कि अपनी स्वेच्छा से घूम रहे जोड़ों के साथ कोई कार्रवाई नहीं की जाएगी, साधारण मामलों में अभिभावकों को सूचित कर लोगों को छोड़ दिया जाए। गंभीर मामलों में गिरफ्तारी भी कर सकते हैं, साथ ही उन्हें कार्रवाई की वीडियो रिकॉर्डिंग भी करनी होगी। इससे लोगों की परेशानियां कुछ कम होंगी। यदि इसके बाद भी अगर आम जनता को एंटी रोमियो स्क्वायड की वजह से परेशानी का सामना करना पड़ता है। तो प्रशासन को अवश्य ही इनके खिलाफ भी सख्त कदम उठाने चाहिए।

  कब तक सीमाओं में बंधती रहेंगी महिलाएं ?

आखिर यह सोचने वाली बात है कि ऐसे दलों की जरूरत पड़ी ही क्यों? अभी तक सुरक्षा के लिहाज से सेना का गठन होते तो देखा था। परंतु महिलाओं की सुरक्षा के लिए किसी दल का गठन शायद पहली बार हुआ हो। भविष्य में हो सकता है यह फैसला लाभकारी साबित हो। लेकिन उसके लिए कड़े कदमों की जरूरत है। लोगों को इस बात का अहसास कराना जरूरी है कि महिलाएं किसी भी रूप में कमजोर नहीं है आज वह पूर्णतः पुरुषों के बराबर सक्षम है। उन्हें किसी  के सहारे की जरूरत नहीं है लेकिन सम्मान की जरूरत अवश्य है।


अहम है मुख्यमंत्री का छुटिट्यां रद्द करने का फैसला

 अहम है मुख्यमंत्री का छुटिट्यां रद्द करने का फैसला


छुट्टियों का नाम आते ही सबका मन मचल उठता है। पहले से ही घूमने की योजनाएं बनाने लगते हैं। हमारे देश में जहां कर्मशील लोग हैं वहीं आरामपसंद लोग भी रहते हैं। इतवार की छुट्टी के तुरंत बाद ही अगली छुट्टी खोजने लगते हैं। वहीं महापुरुषों के नाम पर मिली छुट्टी तो उनकी खुशी में चार चांद लगा देती है। यह छुट्टियां उन्हें फ्री में मिली छुट्टी के समान लगती है।  महापुरुषों के नाम पर छुट्टी का चलन लोकप्रिय हो  गया है। लगभग हर नई सरकार अपने कार्यकाल में एक न एक छुट्टी बढ़ाती ही रही है। कभी उनकी जन्मतिथि पर तो कभी उनकी पुण्यतिथि पर। महापुरुषों के नाम  पर छुट्टियों का यह सिलसिला निरंतर बढ़ता ही जा रहा था। लगभग हर साल छुट्टियों की संख्या में बढ़ोतरी हो रही थी । जिन महापुरुषों के नाम पर छुट्टियां होती हैं  ,वह अपने जीवन में बिना रुके ही काम करते रहें ।  उन्होंने अपने जीवन में आराम को हराम समझाकर, देश के प्रति अपने कर्तव्य निभाते रहे । वैसे ही हम सब को अपने कर्तव्य निभाने चाहिए।  उन्होंने परिश्रम को ही अपना परम कर्तव्य समझा,तो फिर उनकी जन्म तिथि पर उनके जीवन से प्रेरणा लेकर हम सभी को अपने आने वाली पीढ़ियों को उन्हीं के जैसे कर्म करने की सीख क्यों नहीं देनी चाहिए जो उनके लिए वास्तविक श्रद्धांजलि होगी । भारत एक विकासशील देश है और विकास के लिए परिश्रम ही एकमात्र उपाय है।यही परिश्रम भारत को विश्व पटल के शिखर पर पहुंचाएंगा।

ऐसे में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अंबेडकर जयंती पर महापुरुषों के नाम पर होने वाली  छुट्टियों को रद्द करने की बात कही है। उनका कहना कि महापुरुषों के नाम पर स्कूल बंद करने की परंपरा ठीक नहीं है। बल्कि उस दिन स्कूलों में ऐसे कार्यक्रम होने चाहिए जिनसे बच्चे उन महापुरुषों के संघर्ष व कार्यों को जान सके। उनके जीवन से कुछ प्रेरणा ले सकें। समझ सके कि किस तरह वे महापुरुषों की श्रेणी में अपना नाम दर्ज करा पाए। निश्चित ही उनकी यह सोच ऐतिहासिक व सराहनीय  है। वहीं अब अंबेडकर जयंती के अवसर पर अपनी कही बात पर अमल करते हुए योगी आदित्यनाथ ने चौथी कैबिनेट की बैठक में प्रदेश की 15 छुट्टियों को रद्द कर दिया है। 

आज तक सभी राजनीतिक पार्टियों ने वोट बैंक बटोरने के लिए महापुरुषों के नाम पर छुट्टियों  का ऐलान किया । लेकिन योगी आदित्यनाथ ने इस तरह की राजनीति से इतर अपनी इस बात से एक नई मिसाल कायम कर दी है। इससे कम से कम छुट्टियों के नाम पर हो रही राजनीति पर तो लगाम लग सकेगी।


 वे जानते है कि उनके इस फैसले से कुछ लोगों को आपत्ती होगी। इस फैसले का मूल कारण उन्होंने बताया कि कई बार गांवों में जाने पर बच्चों से पूछा कि स्कूल क्यों नहीं गए तो वे कहते हैं कि आज इतवार है। यह याद दिलाने पर कि इतवार नहीं है बस इतना बता पाते हैं कि आज स्कूल में छुट्टी है। तो ऐसी छुट्टियों का क्या फायदा जिनका बच्चे अर्थ ही न समझ पाए। स्कूलों में जयंती पर कार्यक्रम कराना एक उचित फैसला है। क्योंकि छुट्टियों से तो बच्चों का सिर्फ नुकसान ही होता है। साल में 220 दिन विद्यालय चलने चाहिए लेकिन छुट्टियों के कारण 120 दिन से ज्यादा चल नहीं पा रहे हैं। दुनिया भर में सबसे ज्यादा सार्वजनिक छुट्टियां भारत में होती है। भारत में 21 सार्वजनिक छुट्टियां  है। भारत में भी सबसे ज्यादा यूपी में होती है। इन छुट्टियों की वजह से कई स्कूलों में कोर्स अधूरा रह जाता है जिससे बच्चों का शैक्षाणिक नुकसान होता है।

 कर्पूरी ठाकुर का जन्मदिन, चंद्रशेखर आजाद की जयंती, चरण सिंह का जन्मदिन, हजरत अली और ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती का जन्मदिन, राणा प्रताप जयंती, परशुराम जयंती, महर्षि कश्यप व महाराज गुहा, चेटी चंद, रमजान का अंतिम शुक्रवार, विश्वकर्मा पूजा, अग्रसेन जयंती, बाल्मीकि जयंती, छट पूजा पर्व,वल्लभ भाई पटेल और नरेंद्र देव जयंती, ईद-उ- मिलादुन्नवी  छुट्टियों को रद्द कर दिया गया है। इससे कैलेंडर में छुट्टियां कम हो गई, स्कूल खुलने वाले दिनों में 15 दिन की बढ़ोतरी हो गई। जिसका फायदा बच्चों को अवश्य मिलेगा और इन महा पुरूषों के बारे में कुछ सीख भी पाएंगे जो बच्चों के समग्र विकास में सहायक सिध्द होंगे।   


स्कूलों में कार्यक्रम होने से बच्चे महापुरुषों के संघर्ष को जान सकेंगे। देश के लिए उनके द्वारा किए गए त्याग व बलिदान को समझ सकेंगे। साथ ही उनके संघर्षशील जीवन से कुछ सीख ले सकेंगे। आज के बच्चे ही कल देश के नेता और बड़े अधिकारी बनेंगे और देश की कमान इन्हीं के हाथों में होगी। अगर आज बच्चों से महापुरुषों के बारे में पूछा जाए तो वह उनके बारे में  शायद ही कुछ जानते हों। लेकिन अब स्कूलों में बच्चें महापुरुषों के जीवनी से रूबरू हो सकेंगे । इससे उनके अंदर  देश के प्रति सम्मान, आदर, राष्ट्रीय भावना का विकास होगा । बच्चे उनके जीवन से प्रेरित होकर उनके जैसा बनने की कोशिश करेंगे। इससे निश्चित तौर पर यह कहा जा सकता है कि आने वाले समय पर हमारा राष्ट्र सुरक्षित हाथों में रहेगा।



योगी आदित्यनाथ की इस बात से मनमानी छुट्टियों पर लगाम लगेगी। स्कूलों में कार्यक्रम होने से बच्चों को कुछ  सीखने का मौका भी मिलेगा। हम इस तरह देश के सुनहरे भविष्य की कामना कर सकेंगे। क्योंकि देश का भविष्य तो आज के स्कूली बच्चे ही हैं। स्कूलों में आयोजित इस तरह के कार्यक्रम से बच्चे महापुरुषों से प्रेरित होकर उनके जैसा कुछ करने का लक्ष्य स्थापित करेंगे। साथ ही  उज्जवल भविष्य की ओर बढेंगे। लेकिन यह सफलता तभी मिलेगी जब सरकार इन कार्यक्रमों में भी उतनी ही तात्परता दिखाए जितना कि फैसले में दिखाया । स्कूलों में कार्यक्रम किए भी जा रहे हैं या फिर नहीं इन सबका का औचक निरीक्षण भी किया जाए , तभी इस फैसले के उद्देश्यों को पाया जा सकता है। 

संवैधानिक अधिकार पर विचार

संवैधानिक अधिकार पर विचार


                        

भारत एक लोकतांत्रिक देश है जिसमें हर नागरिक को अपने विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता प्रदान है। यह स्वतंत्रता नागरिकों को संविधान द्वारा मिली हुई है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार लोगों को स्वतंत्र रुप से अपने विचार व्यक्त करने के उद्देश्य से दिया गया था। वहीं अधिकतर लोग इस स्वतंत्रता का दुरुपयोग करते हैं। इनमें से ज्यादातर राजनेता इसमें शामिल है किसी भी घटना पर बेतुके बयान देना उनकी आदत में शुमार है। 

भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (1) में भाषण की स्वतंत्रता का अधिकार है। लेकिन कभी-कभी यह अधिकार दूसरों के प्रति अनाधिकार अतिक्रमण करता है। इस स्वतंत्रता के जरिए अक्सर लोग किसी पर भी अनुचित टिप्पणी करने से बाज नहीं आते हैं। वह यह भूल जाते हैं कि उनके कथन से किसी के मान सम्मान, अस्मिता को हानि पहुंच सकती है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अपने विचार व्यक्त करने के लिए दी गई है न कि एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने के लिए। इस पर रोक लगाना अति आवश्यक है। 

हालांकि इन अधिकारों के साथ- साथ अनुच्छेद 19 (2) में कुछ प्रतिबंध भी हैं, जिसका लोग ध्यान नहीं रखते हैं। अगर स्पष्ट रूप से कहें तो अधिकांश लोगों को यह नहीं मालूम है कि संविधान ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ कुछ प्रतिबंध भी लगा रखे हैं। जैसै कि राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों के हित में, लोक व्यवस्था,शिष्टाचार या सदाचार के हित में, न्यायालय की अवमानना,अपराध को बढ़ावा देने के मामले में, भारत की प्रभुता और अखंडता, इनके आधार पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक लगाई जा सकती है। प्रतिबंध होने के बावजूद भी लोग इन को भूल कर अपने व्यक्त करने की स्वतंत्रता का गलत इस्तेमाल करते हैं, जिसका खामियाजा उन्हें बाद में भुगतना पड़ता है।

ऐसा ही कुछ आजम खान के साथ हुआ है। पिछले साल 29 जुलाई की रात बुलंदशहर के पास राजमार्ग पर मां-बेटी के साथ हुए सामूहिक दुष्कर्म की घटना को उन्होंने राजनीतिक साजिश बताया था। इस तरह की बात करते वक्त आजम खान यह भूल गए कि नके कथन से उस परिवार पर क्या बीती होगी।इस बयान से आजम खान ने उस परिवार की गरिमा को तार-तार कर दिया। आजम खां क्या यह कहना चाहते थे कि उस परिवार के साथ जो भी घटित हुआ वह सिर्फ राजनीतिक साजिश का हिस्सा था। उस परिवार ने जो भी तकलीफ झेली वह सिर्फ एक राजनीतिक साजिश को अंजाम देने के लिए थी। इस तरह के बयान से उनके अंदर कितनी संवेदनशीलता है,यह भी सिद्ध हो गया।

इस पर बेटी के पिता ने सर्वोच्च न्यायालय मेंएक याचिका दकखिल कर दी । सर्वोच्च न्यायालय की सख्ती के बाद आजम खां ने इसके लिए 15 दिसंबर को बिना शर्त माफी मांग ली थी और जिसे अदालत ने स्वीकार भी कर लिया था। लेकिन क्या सिर्फ माफी मांग लेने से उनके बोले गए शब्द वापस हो सकते हैं? बिना सोचे समझे उन्होंने जो इल्जाम उन पर लगाए वह उसके लिए कुछ कर सकते हैं? इस तरह की अमानवीय घटना के बाद महिलाओं पर या उनके परिवार पर क्या बीतती है इसका अंदाजा केवल पीड़ित परिवार ही लगा सकता है। बाकियों के लिए उन पर टिप्पणी करना बहुत ही आसान है। यदि कोई उनकी तकलीफ बांट नहीं सकता है तो कम से कम अनुचित टिप्पणियों से उनकी तकलीफ बढ़ाए भी ना।

सुप्रीम कोर्ट ने पीड़ित परिवार की याचिका पर केंद्र सरकार से जवाब मांगा तो सरकार के अधिवक्ता मुकुल रोहतगी ने कहा कि पीड़ित परिवार मानहानि के लिए दीवानी अथवा फौजदारी कानून के तहत हर्जाने की मांग कर सकता है। संवैधानिक पीठ को भेजने का प्रस्ताव किया है।

वहीं सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ वकील हरीश साल्वे ने कहा कि यदि कोई भी नेता किसी आधिकारिक मामले में अपने विचार व्यक्त करता है तो यह उसका व्यक्तिगत विचार नहीं माना जाना चाहिए। क्योंकि वह उस वक्त पार्टी के वक्ता के रूप में होता है। तो वह यह नहीं कह सकता कि यह उसकी व्यक्तिगत राय है। अक्सर यह देखा गया है कि कोई भी राजनेता जब किसी मामले पर टिप्पणी करता है तो बाद में यह कहकर पल्ला झाड़ लिया जाता है कि यह उसके व्यक्तिगत विचार हैं इसका पार्टी से कोई लेना देना नहीं हैं। यदि वरिष्ठ वकील हरीश साल्वे कि बात पर गौर किया जाए तो कहीं ना कहीं आजम खान के पीछे उनकी पार्टी के विचार भी शामिल थे।यदि इसके लिए पार्टी को भी जवाबदेह माना गया तो आगे से सभी पार्टियां के लिए यह सबक होगा। अन्य सभी अपने प्रवक्ताओं के बोलने के मानक को निर्धारित करेगी।

सर्दोच्च न्यायालय ने टिप्पणी करते हुए कहा कि खान के बयान संविधान के अनुच्छेद 21 के प्रावधानों का उल्लंघन भी करते हैं जो कहते हैं कि किसी की निजता पर कोई टिप्पणी नहीं की जा सकती है। इसी के साथ पीठ ने संविधान पीठ के समक्ष मामले को भेजने की अनुशंसा की और कहा कि संविधान पीठ इस पर विचार करे कि क्या आजम खां का बयान अनुच्छेद 21 का उल्लंघन भी करता है।

ऐसा पहले भी देखा, सुना गया है कि लोग या कोई भी नेता किसी भी मामले पर किसी भी तरह की टिप्पणी कर देते हैं। जैसे कि 31 दिसंबर 2016 की रात को बेंगलुरु में लड़कियों के साथ हुई  छेड़खानी की घटना पर कर्नाटक के गृहमंत्री ने बयान दिया कि 'हमारे देश में कहीं ना कहीं पश्चिमी सभ्यता दखल दे चुकी है' जिसके परिणाम स्वरुप लड़कियां देर रात तक बाहर रहती हैं और ऐसी घटनाएं सामने आती है। उनकी बात का समर्थन करते हुए अबू आजमी ने बयान दिया था कि ''जहां चीनी होगी, वहां चीटियां तो आएंगी ही''। तो क्या लड़कियों में और चीनी में कोई अंतर नहीं इस हिसाब से तो लड़कियों का पर्यायवाची चीनी भी होना चाहिए। वहीं सपा के मुलायम सिंह यादव ने ट्रंप द्वारा महिलाओं से की गई बदसलूकी पर यह टिप्पणी की थी कि ''लड़के हैं लड़कों से तो गलतियां हो ही जाती है। अब क्या इस बात के लिए फांसी दोगे''। इस तरह से वे अपने बयानों से एक प्रकार से अपराधियों को बढ़ावा भी देते हैं।


कहते हैं हमारे नेता युवाओं के मार्गदर्शक होते हैं देश को चलाते हैं। यदि ऐसा मार्गदर्शन प्राप्त होगा तो आने वाली स्थितियां क्या होंगी इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। संविधान पीठ के निर्णय के बाद निश्चय ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मानक उचित रूप में निर्धारित किए जाएंगे और इस स्वतंत्रता का दुरुपयोग भी रोका जा सकेगा।

                     

अक्सर लोगों के बेतुके बयान सामने आते रहते हैं। लेकिन वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत आ जाते हैं। ऐसे में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को पूर्ण रूप से स्पष्ट कर देना चाहिए। इस स्वतंत्रता के मानक निर्धारित किया जाना अति आवश्यक है ताकी कोई भी किसी की गरिमा को ठेस ना पहुंचा सके। इसके लिए कुछ बदलाव करने की जरूरत अवश्य है।




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शोर-शराबे पर लगे लगाम

शोर-शराबे पर लगे लगाम

हमारे समाज में अगर मस्ती की बात आए तो शादी का समय उसके लिए सबसे ऊपर आता है। शादियों के सीजन में मौज मस्ती जायज है। लेकिन उस मौज मस्ती के साथ बढ़ता ध्वनि प्रदूषण सेहत के लिए हानिकारक होता है, साथ ही लोगों को परेशान भी करता है।

जैसा कि सब को पता है कि मार्च से लेकर मई का महीना शादियों की तारीख से भरा रहता है। वहीं लोग यह भी जानते हैं कि इन्हीं महीनों में परीक्षाएं भी होती हैं। इसी बात को ध्यान में रखते हुए सरकार ने कुछ नियम बनाए हैं। जैसे कि रात को 10 बजे के बाद शादियों में कोई पटाखों का प्रयोग नहीं करेगा, मंदिर मस्जिद या किसी भी धार्मिक स्थल में लाउडस्पीकर का प्रयोग नहीं होगा, यदि घर में कोई आयोजन है तो 10 बजे के बाद लाउडस्पीकर का प्रयोग करना सख्त मना है। लेकिन सारे नियमों को ताक पर रखते हुए लोग अपनी मनमानी करते रहते हैं। बारात चाहे रात को 9 बजे निकले या 12 बजे के बाद लोग उसी धूम-धाम और शोर शराबे के साथ निकलते हैं। इस तरह से वह सिर्फ नियम ही नहीं तोड़ते बल्कि लोगों को परेशान भी करते हैं।

मार्च-अप्रैल के महीने में 12वीं की बोर्ड, यूनिवर्सिटी की  परीक्षाएं होती हैं। लगभग सभी लोग रात में ही पढ़ाई करते हैं। ऐसे में जब बारात निकलती है तो उसके  शोर-शराबे से लोगों को काफी परेशानी होती है।

नियम तो बने हुए हैं लेकिन उन पर अमल कोई नहीं करता है। ना ही इस तरफ प्रशासन ध्यान देता है। यह बात तो किसी से नहीं छुपी हुई है कि रात को 12 बजे के बाद भी लाउड स्पीकर का प्रयोग जारी  रहता है।

हाल ही में मशहूर गायक सोनू निगम ने  मस्जिद में आजान से होने वाली आवाज का विरोध किया।  जिसके लिए उन्हें बहुत भला बुरा कहा गया। पश्चिम बंगाल अल्‍पसंख्‍यक युनाइटेड काउंसिल के एक वरिष्‍ठ सदस्‍य का बयान दिया है, 'यदि कोई उनका सिर मुंडवा कर, उनके गले में जूते की माला डालकर देश में घुमाएगा तो मैं खुद उस शख्‍स के लिए 10 लाख रुपये के पुरस्‍कार का एलान करता हूं। हालांकि बाद में सोनू निगम ने अपना सिर मुंडवाकर यह सिद्ध किया कि वह कुछ गलत नहीं कह रहे और अपनी बात पर वह टिके हुए हैं। आखिर सोनू निगम ने क्या गलत कहा था। उन्होंने तो सिर्फ जो नियम बने हुए उनका पालन करने के लिए कहा था। जिसके लिए उनके खिलाफ फतवा जारी कर दिया गया।

प्रशासन को हमेशा हो रही ऐसी मनमानी को रोकने के लिए कुछ प्रयास करने चाहिए। जो नियम बने हुए हैं पहले से कम से कम लोग उन पर अमल करें इसके लिए कुछ ठोस कदम उठाने चाहिए।

सरहद पर अगर ना होता जवान

सरहद पर अगर ना होता जवान
सोचो क्या होता देश का अंजाम,
ऐसे में जवान पूछे बस यही सवाल
कौन आएगा फिर इस देश के काम...

भले करें ना करें कोई इनका ख्याल
फिर भी बने रहते ये देश की ढाल,
ऐसे में जवान पूछे बस यही सवाल
वो ना हो तो क्या हो इस देश का हाल...

सदा बना रहे देश का सम्मान
इसके लिए दे देते वे अपनी जान,
ऐसे में जवान पूछे बस यही सवाल
क्या यह भूलना है अासान...

अपनों के लिए अपनों से हैं  दूर
सब कुछ सहने को हैं मजबूर,
ऐसे में जवान पूछे बस यही सवाल
अपमान के क्यों पीने पड़ते  हैं घूंट...

शरहद पर दुश्मन को देते हैं मात
चाहे जितने भी मुश्किल हों हालात
ऐसे में जवान पूछे बस यही सवाल
आखिर कौन कौन देगा हमारा साथ...

आए हैं आते रहेंगे,जान अपनी लुटाते रहेंगे,
आखिर में जवान कहता है बस यही बात
हमारी परवाह करो ना करो
हम अपना कर्तव्य निभाते रहेंगे।

कोई पत्थर से ना मारे इन जवानों काे

        कोई पत्थर से ना मारे इन जवानों काे


                        दुश्मन फेंके अगर बम भी तो,
                                 गम नहीं होता है, 
                 अपनो के पत्थर फेंकने से बड़ा कोई, 
                               सितम नहीं होता है।

शायद आज हमारे देश के जवान की यही मनोस्थिति है। हाल ही में कश्मीर से वायरल हुआ वीडियो जिसमें कुछ गुमराह कश्मीरी युवक सीआरपीएफ जवानों पर पत्थरबाजी कर रहे हैं । निश्चित ही यह वीडियो विचलित करने वाला है। क्योंकि आज हम अपने घरों में जिनकी बदौलत सुरक्षित बैठे हैं, वह हमारी रक्षा करते हुए अपने ही देश में किन परेशानियों का सामना कर रहे हैं  यह देखकर आश्चर्य होता है।  जो  जवान अपने देश के प्रति जिम्मेदारी निभाने हेतु अपने परिवार से दूर रहते हैं,उन्हें अगर प्यार नहीं मिल सकता तो कम से कम ऐसा अपमान भी ना मिले। निश्चित ही ऐसे में अपने परिवार से दूर रह रहे जवानों का मनोबल घटता है।

यह कोई पहली बार नहीं है जब जवानों के साथ कश्मीर में हो रही बदसलूकी सामने आई है। इससे पहले भी उनके साथ हो रहे दुर्व्यवहार के वीडियो देखने को मिले हैं। देश की सुरक्षा में लगे जवानों को क्या कीमत चुकानी पड़ती है यह देखकर पीड़ा होती है  साथ ही फारूक अब्दुल्ला  के बयान  पर आश्चर्य भी होता है।

नेशनल कांफ्रेंस प्रमुख और पूर्व मुख्यमंत्री डॉ फारूक  अब्दुल्ला एक तरफ तो उनके साथ हुए दुर्व्यवहार को दुर्भाग्यपूर्ण बता रहे व उनकी सहनशीलता की सराहना कर रहे हैं, वहीं  उनका कहना  है कि ''पत्थरबाजों को एक नजर से देखना सही नहीं है उनकी कुछ शिकायतें हैं जिसके कारण वह घर से बाहर निकल जाते हैं ''।

अगर ऐसे पत्थरबाजों की शिकायतों को समझने में लगे रहे तो हमारे जवान किसके पास शिकायत लेकर जाएंगे? क्या उन्हें शिकायत करने का हक नहीं? इसका जवाब तो फारूक अब्दुल्ला ही दे पाएंगे। अपने ही देश के नेताओं द्वारा दिए गए ऐसे बयानों को सुनकर निश्चित ही सेना का मनोबल घटता है। ऐसे में इन कठिन परिस्थितियों में काम कर रही सेना से वह कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वह उनकी रक्षा करें। लेकिन सेना कभी अपने कर्तव्यों के आगे अपने मान सम्मान को नहीं आने देती है।

ऐसे में निश्चित ही राजनीतिक पार्टियों को फारूक अब्दुल्ला के बयान पर जवाब देना चाहिए।  लेकिन वह ऐसी परिस्थिति में चुप रहना ही सही समझते हैं। सेना को तो उनके कर्तव्य समझाए जाते हैं लेकिन उनके प्रति सरकार अपने कर्तव्य नहीं समझती हैं। अगर दूसरे देशों से तुलना करी जाए तो हमारे देश में सुरक्षा बलों के लिए कुछ खास नहीं किया गया है। जैसे इजराइल में सेना पर पत्थरबाजी करने वालों के लिए सजा का प्रावधान है। वहां यदि कोई पत्थर बाजी करता है तो उसके परिवार वालों को मिल रही नेशनल हेल्थ इंश्योरेंस सेवा व अन्य सुविधाएं रद्द कर दी जाती है। जिससे की सेना के साथ बदसलूकी करने के पहले लोग एक बार सोचते हैं परंतु हमारे देश में किसी को कोई डर नहीं है। यही कारण है कि अक्सर ऐसी स्थिति सामने आती रहती है।

जवानों के साथ अक्सर हो रहे ऐसे दुर्व्यवहार पर सरकार को ठोस कदम उठाने चाहिए। सरकार को इस 'एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी सिचुएशन' में 'एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी तरीके' अपनाने चाहिए। इससे इन गुमराह पत्थरबाजों पर लगाम लग सकेगी। जब इन्हें कानून का डर होगा तो वह ऐसे कदम उठाने के पहले सौ बार सोचेंगे। ऐसा ना होगा तो आगे भी देश को ऐसे हालातों के कारण शर्मिंदगी उठानी पड़ेगी। 

संचार के बदलते माध्यम

               संचार के बदलते माध्यम

           कबूतर जा.. जा.. जा.. कबूतर जा.......                      चिट्ठी आई है.. आई है.. चिट्ठी आई है.......


जैसे गाने समय के साथ उपलब्धियां हासिल कर रहे  संचार माध्यमों को बखूब ही दर्शाते हैं........पहले के समय में कबूतरों को उड़ता देख ही लोगों के मन में ल होने लगती थी आखिर संदेश कहां जा रहा है वैसे ही 'डाक आया' का स्वर मानों मधुर संगीत की तरह कानों में गुंजता था...... हालांकि वहीं आज बढ़ती तकनीकी के साथ 'डाक आया'  का स्वर मोबाइल रिंगटोन में बदल गया है. आइए आज इन्हीं बदलते संचार माध्यमों पर बात करते हैं.......
                                  
पुराने समय में संदेश कबूतरों के जरिए पहुंचाये जाते थे, दादी जी अक्सर प्रियजनों की चिट्ठी के लिए डाकिए का इतंजार किया करती थी शायद कुछ हाल खबर मिल जाए. लेकिन तकनीक ने इस कदर करवट बदली की कबूतरों से शुरू हुआ दादी जी का अभियान डाकिए से होते हुए मुट्ठी भरके एक छोटे से खिलौने तक जा पहुंचा.दादी अब इंतजार नहीं बल्कि खुद ही फोन कर लोगों का हाल चाल ले लेती हैं.देशों की सीमाओं को तोड़ इस अविष्कार ने दुनिया को मुट्ठी में कर लिया है जो शायद पहले कल्पना जैसा था.
      मनुष्य के लिए संचार उसकी जीवन प्रणाली का महत्वपूर्ण हिस्सा है। दुनिया में लोगों को एक दूसरे से जुड़े रहने के लिए संचार माध्यमों की आवश्यकता है। आज मनुष्य का बिना संचार माध्यमों के गुजारा नामुमकिन है। 
संचार ऐसी प्रक्रिया है जिसका दुनिया के शुरू होने के साथ ही प्रारंभ हो गया था। प्राचीन समय में इस के लिए ज्यादा माध्यम उपलब्ध नहीं थे। फिर भी यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती थी। संचार साधनों की कमी के कारण पहले संदेश पहुंचाने में अधिक समय लगता था। हालांकि अब यह काम कुछ पलों में हो जाता है। 
आज के आधुनिक युग में संचार प्रक्रिया बहुत सरल हो गई है। बढ़ती टेक्नोलोजी के साथ मनुष्य आज  दुनिया के हर कोने से हर पल जुड़ा हुआ है। संचार के जब उपयुक्त साधन नहीं थे तब से लेकर अब तब संचार माध्यमों में कितनी उपलब्धियां हासिल हुई हैं आइए उनके बारे में बात करते हैं-

कबूतर का उपयोग:-



पहले के जमाने में कबूतर ही डाकिया का काम करते थे। राजा चंद्रगुप्त मौर्य के समय में संदेश भेजने के लिए कबूतर का उपयोग प्रचलन में आया। चंद्रगुप्त के बाद मुगलों ने भी संदेश भेजने के लिए कबूतरों का इस्तेमाल करना शुरु कर दिया। 19 वीं सदी में होने वाले विश्वयुद्ध तक कबूतर के माध्यम से संदेश भेजा जाता था। कबूतरों द्वारा संदेश भेजना इतना आसान भी नहीं था। इसके लिए उन्हें पहले प्रशिक्षित किया जाता था। जिसके लिए प्रशिक्षकों की जरूरत पड़ती थी। और यह एक लंबी प्रक्रिया बन जाती थी। 
आज हमें मैसेज भेजने के तुरंत बाद ‘ मैसेज सेंट‘ का मैसेज आ जाता है। जिससे तुरंत पता चल जाता है कि रिसीवर तक मैसेेज पहुंच गया है। लेकिन पहले के समय में यह तभी जान सकते थे जब रिसीवर उस संदेश का कोई जवाब दे। कबूतर द्वारा मेसेज भेजने के बहुत से फायदे भी थे, जैसे कि कबूतरों द्वारा संदेश भेजने के लिए नेटवर्क की आवश्यकता नहीं होती थी।
 कबूतरों के उड़ने की रफ्तार 16 मील प्रति घंटा होती थी। वह अपनी जगह से 1600 किमी आगे जाने पर भी रास्ता भटके बिना वापस आ जाते थे। वह चाहें आंधी आए या तूफान अपनी मंजिल तक पहुंच ही जाते थे। जबकि अगर आज नेटवर्क न मिले तो सारे संपर्क टूट जाते हैं। 

कबूतरों से जुड़े कुछ तथ्य:-

  • 19 वीं सदी में होने वाले विश्वयुद्ध तक कबूतर के माध्यम से संदेश भेजा जाता था।
  • कबूतरों के उड़ने की रफ्तार 16 मील प्रति घंटा होती थी।
  • वह अपनी जगह से 1600 किमी आगे जाने पर भी रास्ता भटके बिना वापस आ जाते थे।

दूतों द्वारा संदेश भेजना:-

राजा - महाराजाओं के समय में कबूतरों द्वारा संदेश भेजने के साथ - साथ दूतों का उपयोग भी प्रचलन में था। इसके लिए उन्हें घोड़ों का प्रबंध करना पड़ता था। एक तरह से यह उस समय रोजगार का जरिया भी था। उस समय उपयुक्त साधन न होने के कारण इस तरह से संदेश भेजने में महीनों लग जाते थे। 

तार का प्रयोग:-



तार द्वारा संदेश भेजने का प्रयोग स्काॅटलैंड के वैज्ञानिक डाॅ. माडीसन ने 1753 में किया। इसके बाद ब्रिटिश वैज्ञानिक रोनाल्ड ने 1838 में सार्वजनिक रूप से तार द्वारा संदेश भेजने की व्यावहारिकता का प्रतिपादन किया। आजकल के तार भेजने का श्रेय अमेरिकी वैज्ञानिक , सैमुएल एफ. बी. माॅर्स को जाता है। इन्होंने 1844 में तार द्वारा खबरें भेजकर इसका सार्वजनिक रूप से प्रदर्शन किया। भारत में ब्रिटिशरों के जमाने में तार द्वारा संदेश भेजने की शुरूआत हुई। 1853 में कोलकाता से आगरा तक तार भेजने की सेवा शुरू हुई। तार द्वारा हम लिखकर तो संदेश भेज सकते थे लेकिन एक दूसरे से बात नहीं कर सकते थे। यह कमी आगे आने वाले समय में पूरी हुई।

तार से जुडे़ कुछ तथ्य:-

  • पहली बार स्काॅटलैंड के वैज्ञानिक डाॅ. माडीसन ने 1753 में तार द्वारा संदेश भेजने का प्रयोग किया।
  • भारत में तार की शुरूआत 1853 में हुई। 
डाॅट फोन का आविष्कार:-


डाॅट फोन लोगों के लिए उस समय का चमत्कारी आविष्कार था। वह सोच भी नहीं सकते थे कि वह दूर दराज बैठे भी किसी की आवाज सुन सकते हैं। डाॅटफोन का आविष्कार ऐलेक्जेंडर ग्रैहैम बेल ने अपने सहायक टाॅमस वाट्सन की सहायता से किया। वह यह यंत्र 10 मार्च 1876 ई. में बनाने में सफल हुए। पहले के समय में घर में डोट फोन होना प्रतिष्ठा का प्रतीक माना जाता था। डाॅट फोन के बाद संचार माध्यमों ने नए प्रतिमान गढ़ने शुरू कर दिए। इसके बाद संचार के लिए बहुत ही चमत्कारी उपकरण देखने को मिलें। 
पहले  के समय में हर कोई इतना सक्षम नहीं था कि वह अपने घर में फोन रख सके। इसलिए डोट फोन के आविष्कार के बाद जगह - जगह पीसीओ खोले गए। जिसके कारण सभी लोग इस सेवा का लाभ उठाने में सक्षम हो गए।

डोट फोन से जुडे़ कुछ तथ्य:-

  • इसका आविष्कार ऐलेक्जेंडर ग्रैहैम बेल व उनके सहायक टाॅमस वाट्सन ने किया।
  • 10 मार्च 1876 ई ़ में यह यंत्र बनकर तैयार हुआ।

सेल/मोबाइल का उपयोग:-

1947 में यूएस में सबसे पहला मोबाइल फोन बनाया गया था। सह फोन एटी एंड टी की लैब में बना था। 1950 के दशक में फोन का प्रयोग केवल सिविल सर्विसेज के लिए होता था। आम आदमी के लिए यह सुविधा 1973 में उपलब्ध हुई। अमेरिकन इंजीनियर मार्टिन कूपर ने 3 अप्रैल, 1973 में विश्व को पहला मोबाइल फोन दिया। 
पहले संचार माध्यमों के द्वारा हम संदेश या तो लिखकर भेज सकते थे या बात कर सकते थे। दोनों काम एक साथ करना संभव नहीं था। परंतु मोबाइल फोन के आविष्कार से यह संभव हो गया है। आज हम ई-मेल, टेक्स्ट मेसेज, काॅलिंग व वीडियो काॅलिंग कुछ पलों में किसी भी रूप में कर सकते हैं।

सेल/मोबाइल से जुडे़ कुछ तथ्य:-

  • 1947 में यूएस में सबसे पहला मोबाइल फोन बना।
  • आम आदमी को मोबाइल सुविधा 1973 में मिली।

आज विश्व ने संचार माध्यमों के क्षेत्र में काफी उपलब्धियां हासिल कर ली हैं। प्राचीन काल में कबूतर द्वारा संदेश भेजने से लेकर आज मोबाइल  फोन के इस्तेमाल के बीच काफी बदलाव देखने को मिले। आज बढती टेक्नोलोजी के साथ संचार प्रक्रिया बहुत सरल हो गई है।

अगर पहले के संचार उपकरणों से आज के संचार उपकरणों की तुलना करें तो इसमें कोर्इ दोराय नहीं है कि पहले जब संदेश भेजना महीनों का काम था वहीं आज संदेश भेजना कुछ पलों का काम रह गया है। 
प्राचीन समय में लोगों का फेस टु फेस  बात करना संभव नहीं था, जबकि आज यह वीडियो काॅल व अन्य सुविधाओं द्वारा संभव है। 

जिंदगी के अनमोल रिश्ते

जन्म होते ही बनते रिश्ते जिंदगी के अनमोल रिश्ते पालने में झुलता बचपन नए रिश्ते संजोता बचपन औलाद बनकर जन्म लिया संग कई रिश्तों को जन्म द...