आम हो चुका भारतबंद

आम हो चुका भारतबंद

हाल ही में हमने 2 अप्रैल व 10 अप्रैल के भारत बंद के बारे में देखा - पढ़ा। 2 अप्रैल को दलितों ने भारत बंद किया था। यह 20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के विरोध में था , तो 10 अप्रैल  को सवर्णों ने आरक्षण के विरोध में भारत बंद कराने की कोशिश की। भारत एक लोकतांत्रिक देश है जहां सबको अपने हिसाब से जीने की आजादी है। वहीं कुछ लोग अपने फायदे के किए भारत बंद कर पूरे समाज के विकास में रोड़ा बनने का प्रयास करते हैं। ऐसी घटनाएं लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय है। आखिर ये लोग देश को किस ओर ले जा रहे हैं, यह आमजन की समझ से परे है।

20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने एससी – एसटी एक्ट में तत्काल गिरफ्तारी पर रोक लगाने का आदेश दिया था। आदेश के अनुसार इस एक्ट में अब गिरफ्तारी से पहले जांच - पड़ताल के बाद ही कार्रवाई की जाएगी । लेकिन यह बात दलित समुदाय को रास नहीं आई। फैसला आने के बाद से ही  पूरे समुदाय में आक्रोश पनपने लगा जिसका हिंसक रूप 2 अप्रैल को देखने को मिला। इस हिंसक बंद का असर राजस्थान, मध्यप्रदेश, बिहार, पश्चिमी उत्तरप्रदेश सहित लगभग 14 राज्यों में अधिक दिखा। इस हिंसा का खामियाजा 11 लोगों को  अपनी जान गंवा कर चुकाना पड़ा और सरकारी संपत्तियों का जो नुक्सान हुआ सो अलग। यहां लोगों में आक्रोश इतना ज्यादा था कि वे कानून जाए भाड़ में नारे के साथ दुकानों में आगजनी और तोड़फोड़ बेखौफ करते रहे। निश्चित ही उन लोगों का यह कृत्य निंदा के योग्य था। प्रदर्शनकारियों में न तो कोई संवेदनशीलता थी न ही किसी का भय। वे तो बस अपनी बात मनवाने के लिए किसी भी हद तक जाने को आमादा थे। इन सबके बीच अगर कुछ अजीब था तो वह सरकारों का रवैया।
यह बात सभी जानते हैं कि एससी-एसटी एक्ट की बात जब आती है तो सभी सरकारें बेबस हो जाती हैं । उनकी चुप्पी साफ - साफ यह दर्शाती है कि उनके लिए वोट बैंक ही सर्वोपरि है। वह बस अपने वोटों की गिनती पकड़े बैठे रहते हैं। सरकार की यही बेबसी 2 अप्रैल को भी देखने को मिली । धारा 144 लागू होने के बावजूद उग्र प्रदर्शनकारियों की भीड़ ने जमकर तांडव मचाया, लेकिन सरकारों की तरफ से कोई भी सख्त प्रतिक्रिया न आना आश्चर्यजनक था। 

गौरतलब है कि एससी- एसटी एक्ट अधिनियम 1989 का मुद्दा कोई पहली बार नहीं उठा है। इससे पहले सन् 2007 – 2012 में जब उत्तरप्रदेश में मायावती की सरकार थी तब भी इस एक्ट के दुरुपयोग को रोकने पर जोर दिया गया था। मायावती की सरकार ने पुलिस को एक्ट का सही उपयोग हो, इसके लिए सख्त हिदायत दी थी। साथ ही गलत जानकारी देने पर भारतीय दंड सहिता की धारा 182 के तहत पुलिस को कार्रवाई करने के निर्देश भी दिए थे। ऐसे में इस समुदाय को उस समय कोई परेशानी क्यों नही हुई थी। तब में और आज में क्या अंतर था अब ये तो समझना मुश्किल है।  वहीं इससे यह बात भी उभर के आती है कि इन सबके पीछे कोई राजनीतिक मंशा तो नहीं है। इसमें कोई दोराय नहीं है कि दलित समाज भी देश में बराबरी का अधिकार रखता है उसके साथ अन्याय नहीं होना चाहिए। लेकिन ऐसे में इस का ख्याल रखा जाना भी जरूरी है कि वह उन्हें मिली सहूलियत का कोई भी नाजायज़ फायदा न उठाए।


दलित समुदाय की देखादेखी सवर्णों ने भी भारत बंद कर आरक्षण के खिलाफ प्रदर्शन किया। 2 अप्रैल की ही तरह 10 अप्रैल को भी लोग अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर उतर आए। इन लोगों ने भी वही भयावह रूप अपनाया। दुकानों में आगजनी, तोड़फोड़ कर लोगों को डराना धमकाना, दुकानों को जबरन बंद करवाने के साथ ही सड़कों पर हिंसा करते दिखाई पड़े। इस प्रदर्शन का सबसे ज्यादा असर बिहार के आरा में अधिक दिखा। यहां भी आरक्षण के नाम पर एक समुदाय दूसरे समुदाय से भिड़ा जा रहा था और सरकार चुप्पी साधे बैठी रही। इस दिन भी धारा 144 लागू होने का कोई फायदा नहीं दिखा। ऐसी पस्थितियों को देखते हुए लगता है कि देश के कानून के कोई मायने हैं भी या नहीं ? लोग कानून की परवाह किए बिना बस अपनी मनमानी क्यों करते रहते हैं और सरकारें खामोश क्यों रहती है।


भारतबंद मानो आम हो चुका है, जैसे अपनी बात रखने का यही एकमात्र जरिय़ा बचा हो। अगर किसी को भी अपनी कोई भी बात मनवानी हो तो वो भारतबंद की तलवार उठा लेता है । लोकतंत्र हमें अपनी बात रखने की आजादी देता है। सभी को अपनी मांगे सरकार के सामने रखने का पूरा अधिकार है। लेकिन कुछ लोग उस आजादी का नाजायज फायदा उठाते हैं। उसका एक उदाहरण दोनों भारतबंद की घटनाएं  हैं। अगर देश में हर कोई अपनी बात मनवाने के लिए हिंसा की राह पर चलेगा, लोगों की जान लेगा , सरकारी संपत्ति को नुक्सान पहुंचाएगा तो देश किस ओर जाएगा ? इसीलिए समय रहते ऐसी प्रवृत्तियों पर रोक लगाना आवश्यक है नहीं तो यह प्रवृत्तियां अपने फायदे के लिए आने वाली पीढ़ी को भी इसी आग में जलाती रहेंगी।


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