आरक्षण: व्यवस्था या समस्या

  आरक्षण - व्यवस्था या समस्या..?

हमारे देश में आरक्षण को लेकर विवाद कोई नई बात नहीं है। जबकि अब आज की वर्तमान स्थितियों को देखते हुए आरक्षण  की व्यवस्था में बदलाव लाने की जरूरत है। नहीं तो इसमें कोई दो राय नहीं आने वाली पीढ़ी भी इसके दुष्प्रभाव से बच नहीं पाएगी। आरक्षण की आग में हमारा देश पहले भी जल रहा था और आज भी उसी आग में सुलग रहा है। कहीं कोई आरक्षण को लेकर विरोध करता है तो कहीं कोई उस के पक्ष में खड़े होकर उसका समर्थन करता है। जिसके कारण हमेशा विकट परिस्थितियां उत्पन्न होती आई हैं। आरक्षण की शुरुआत देश के विभिन्न समुदायों के बीच के स्तर को समान करने के लिए की गई थी। लेकिन आज यह देश की जड़ों को खोखला कर रहा है, क्योंकि जिस उद्देश्य से इसे चालू किया गया था आज वो ही धूमिल होता दिख रहा है। आज आरक्षण के जरिए सभी नेता बस अपनी  राजनीति की रोटियां सेकने में लगे रहते हैं। वहीं गुजरात में पाटीदार की मांग पर पार्टियों की प्रतिक्रिया इस बात को साफ कर रही है। यहां तक की सरकार समय-समय पर लोगों की मांग पर इस व्यवस्था में अपने  अनुसार बदलाव भी करती रहती है। यदि आरक्षण में ऐसे ही बदलाव किया जाना है तो फिर इसको लेकर बने सभी प्रावधान व्यर्थ है।

वहीं राजस्थान में पांच अन्य पिछड़ी जातियों को भी आरक्षण देने के लिए विधेयक पारित किया इस विधेयक के तहत सरकारी संस्था व नौकरियों में पिछड़े वर्गों का आरक्षण 21% से बढ़ाकर 26% हो गया और कुल आरक्षण सीमा 50% से बढ़कर 54% हो गई। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की वैधानिक सीमा 50 फीसद कर रखी है तो राज्यों की ओर से आरक्षण सीमा बढ़ाने पर न्यायालय उसे खारिज भी कर सकता है। वहीं पाटीदार समुदाय के आरक्षण की मांग ने स्थितियों को और मुश्किल बना दिया। पाटीदार समुदाय की आरक्षण की मांग करना  सभी दलों के लिए चुनौती बन गया है। राजनीतिक दल इस समुदाय को नाराज भी नहीं करना चाहते हैं और दूसरी और ऐसी राह भी नहीं खोज पा रहे हैं जिससे समुदाय को आरक्षण दे सके। एक तरफ उन्हें इस बात का भय भी है कि उनका वोट बैंक ना चला जाए।और न ही कांग्रेस इस मांग को लेकर अपनी मंशा साफ कर रही है। वैसे यह बात समझ से परे है कि सभी पार्टियां कहती हैं कि वह देश के हित के लिए काम करती हैं लेकिन असल तस्वीर तो यही है कि वह सिर्फ वोट के लिए काम करती हैं। यदि वह देश के हित के लिए सोचती तो सही गलत में अंतर कर स्थितियों को संभाल सकती। पर वह तो ऐसी परिस्थितियों का बस फायदा उठाने की ताक में रहती हैं।

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नति में आरक्षण के मसले पर एक याचिका की सुनवाई करते हुए एक महत्वपूर्ण सवाल उठा की आखिर अनुसूचित जातियों और जनजातियों के आरक्षण में क्रीमी लेयर का प्रावधान क्यों नहीं है? यह एक तार्किक सवाल इसलिए भी है क्योंकि ओबीसी आरक्षण में उक्त प्रावधान शामिल है। ''क्रीमी लेयर'' का अर्थ है कि जो लोग आरक्षण कोटा प्रणाली में आते हैं यदि वह संपन्न और सक्षम हैं तो उन्हें आरक्षण का लाभ उठाने से रोका जाएगा। लेकिन इस बात को नकारते हुए अनुसूचित जातियों और जनजातियों में यदि लोग संपन्न भी हैं तब भी वह इसका फायदा उठाते हैं। 

वर्तमान में आरक्षण की जरूरत उन्हें है जो कि संपन्न नहीं है। फिर वह चाहे उच्च जाति के हो या पिछड़ी जाति के। इस बात से कोई अनजान नहीं है कि  सामान्य वर्ग के लोग भी संपन्नता के अभाव में प्रतिभा होते हुए भी आगे नहीं बढ़ पाते हैं। क्योंकि वह तो दो मार खाते हैं, एक अपनी गरीबी की और दूसरी कोटा प्रणाली के अंदर ना आने की।  ऐसे में उनके सामने ऐसा कोई विकल्प शेष नहीं रह जाता है जिससे की वह इस समस्या से निजात पा सके।

आरक्षण को शुरू करने का उद्देश्य केवल पिछड़े समुदायों तथा अनुसूचित जातियों और जनजातियों के स्तर को बराबर करना था। इन जातियों के लोग सरकारी सेवाओं और संस्थानों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं रखते थे इसलिए उनको आगे लाने के लिए इसकी व्यवस्था की गई। सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए भारत सरकार ने भारतीय कानून के जरिये सार्वजनिक तथा निजी शैक्षिक संस्थानों में पदों तथा सीटों के प्रतिशत को आरक्षित करने की कोटा प्रणाली प्रदान की है। 


पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने का एक कारण यह भी था कि वह उच्च स्तर के लोगों से संपन्नता के मामले में बहुत नीचे थे। उनके पास में शिक्षा हासिल करने के लिए उचित साधन नहीं होते थे जिनसे कि वह खुद पढ़ सके या अपने बच्चों को पढ़ा सके। इसके कारण वह नौकरियों में भी आगे नहीं बढ़ पाते थे। इसीलिए जब यह देखा गया कि सभी सरकारी उच्च पदों पर या शैक्षिक संस्थाओं में पिछड़ी जाति वालों की संख्या बहुत कम है तो उन्हें बराबरी का स्थान देने के लिए आरक्षण की शुरुआत की गई। आरक्षण के जरिए उन्हें कोटा प्रणाली में लाया गया जिसके तहत उन्हें स्कूल, कॅालेज की फीस और नौकरी में कुछ प्रतिशत की छूट दी जाने लगी। जिससे कि वह भी समाज में अपनी भागीदारी निभा सके।

वहीं जब आरक्षण की शुरुआत हुई तब तो यह उचित लगता था, क्योंकि उम्मीद थी कि इसके जरिए पिछड़ी जाति वालों को भी बराबरी का मौका मिल सकेगा और यह काफी हद तक  हुआ भी था। लेकिन अब वर्तमान स्थितियों से तुलना करें तो फिर वही परिस्थितियां उत्पन्न होने लगी हैं। बस अंतर यह है कि पहले शीर्ष पदों पर उच्च जाति के लोग थे लेकिन अब उनकी जगह ज्यादातर शीर्ष पदों पर अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोग स्थापित हैं। आज एक सामान्य वर्ग के व्यक्ति तथा अनुसूचित जाति के व्यक्ति में कोई फर्क नहीं रह गया है। वह भी उतने ही सक्षम और संपन्न हैं जितने कि सामान्य जाति के लोग। एक तरह से देखा जाए तो हमारे देश में आरक्षण के मापदंड सही नहीं हैं इसका लाभ लोगों को जातियों के आधार पर दिया जाता है। इससे देश की विकास यात्रा में भी कठिनाईंया उत्पन्न हो सकती हैं क्योंकि इसके जरिए कई प्रतिभाशाली लोग पीछे रह जाते हैं और वहीं आरक्षण का फायदा उठाते हुए अयोग्य लोग उनसे आगे बढ़ जाते हैं। साथ ही आरक्षण को लेकर एक सवाल यह भी उठता है कि दक्षता, प्रतिभा को नकारने वाली कोटा प्रणाली कहां तक उचित है।

आरक्षण की बात तब से सामने आई जब मोरारजी देसाई के नेतृत्व में बनी पहली गैर कांग्रेसी ने 20 दिसंबर, 1978 को बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल की अगुवाई में नए आयोग की घोषणा की। इस आयोग को मंडल आयोग के नाम से जाना गया। किस आयोग ने तमाम जातियों को सामाजिक,  शैक्षिक, आर्थिक कसौटियों पर परखने का काम किया। मंडल आयोग ने 12 दिसंबर,1980 को अपनी रिपोर्ट फाइनल किया तब तक मोरारजी देसाई की सरकार गिर चुकी थी और इंदिरा गांधी की सरकार आ चुकी थी। 

 मंडल आयोग के तमाम जातियों को परखने पर ये बात सामने आई कि देश में कुल 3,743 पिछड़ी जातियां हैं। पिछड़ी जातियां भारतीय जनसंख्या का आधे से ज्यादा हिस्सा थी। जो कि सामान्य वर्ग के लोगों से पीछे चल रही थी। इसीलिए  आयोग ने इसको दूर करने के लिए पिछडे़ वर्गों के लोगों को सरकारी नौकरियों में 27 फीसदी आरक्षण देने की सिफारिश की। भारत में अनुसूचित जाति-जनजाति को पहले से 22.5 प्रतिशत आरक्षण दिया जा रहा था। इसी कारण इंदिरा गांधी की सरकार इस सिफारिश को लागू करने से बचती रही।  मंडल आयोग की सिफारिश को लागू करने का मतलब था 49.5 प्रतिशत सीटें आरक्षित कर देना।  इंदिरा गांधी सरकार इसे लागू नहीं कर सकी। लेकिन आरक्षण की आग का धुआं तब तक पूरे देश में फैल चुका था। आरक्षण की शुरूआत में इसे रोकने के लिए देश के अलग-अलग शहरों में छात्रों ने विरोध प्रदर्शन किया, कई छात्रों ने आत्महत्या भी की। ऐसी कई गतिविधियां सामने आई। हालांकि तमाम आत्महत्याओं और विरोधों को दरकिनार करते हुए बी पी सिंह सरकार ने देश में आरक्षण लागू कर दिया गया।

अब इस बात की समीक्षा की जानी चाहिए कि बीते वर्षों में  अनुसूचित जनजाति के लोग आरक्षण पाकर किस हद तक संपन्नता के दायरे में आ गए हैं। यह देखा जाना चाहिए यदि वह आरक्षण का लाभ उठाकर सक्षम हो चुके हैं। तो फिर कब तक वह इसका पीढ़ी दर पीढ़ी फायदा उठाते रहेंगे।  वहीं जब शिक्षा संस्थानों में आरक्षण दिया जा रहा है तो नौकरियों में आरक्षण देने का क्या फायदा। क्या आज वर्तमान स्थितियों को देखते हुए आरक्षण प्रणाली में बदलाव की जरूरत नहीं है?   यह सोचने वाली बात है। अब इस पर गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है।















अनकही बातें, अनदेखे पल

 अनकही बातें, अनदेखे पल
बचपन से ही हम सुनते आए हैं कि समय किसी के लिए नहीं रुकता है। वह निरंतर चलता रहता है। एेसे ही सन् 2017 भी अच्छी बुरी बातों को अलविदा कहते हुए धीरे-धीरे नए साल के नए सवेरे की ओर बढ़ता जा रहा है। समय के साथ-साथ हमारी जिंदगी भी चलती ही रहती है। वह भी किसी के लिए नहीं रुकती। इस बात को एक गायक ने इस गाने में बहूत ही खूबसूरती के साथ इस तरह बयां किया है

''आने वाला पल जाने वाला है 
हो सके तो इसमें, जिंदगी बिता दो 
पल जो ये जाने वाला है
''

अब साल 2017 के अच्छे, बुरे सभी पल जाने वाले हैं, वह भी बस यादों का हिस्सा बनकर रह जाएंगे । ऐसे में हमें भी बीते साल की बुरी बातों को पीछे छोड़ आगे बढ़ जाना चाहिए।

हम सभी को यह सोचना चाहिए कि बीते साल में कौन सी बातें हमारे जीवन को एक नई दिशा दे सकती थी और यह समझना चाहिए कि उसी के सहारे हमें आने वाले जीवन में एक मुकाम पर पहुंचना है। यह तय करना किसी और के नहीं बल्कि स्वयं आपके अपने हाथ में है।

दुनिया में हर किसी ने पिछला साल शुरू होने से पहले ही सोचा होगा कि उन्हें 2017 से क्या उम्मींदे हैं। मैंने भी 2017 से बहुत उम्मीदें लगाई थी उनमें से कुछ उम्मीदें मेरी पूरी हुई और कुछ अभी भी बाकी हैं। अब मुझे विश्वास है कि मैं आने वाले सालों में इन्हें अवश्य पूरी कर लूंगी। यह विश्वास हर किसी को अपने आप पर बनाए रखना चाहिए, ताकि वह बीते साल से निराश ना रहे। 

2016 में मैंने अपने जीवन को एक नई दिशा देने के उद्देश्य से जागरण इंस्टीट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट एंड मास कम्युनिकेशन जॉइन किया था। अगस्त में नए सफर की शुरूआत हुई और देखते ही देखते 2017 आ गया। जब मैंने एडमिशन लिया तब मुझे सिर्फ इतना पता था कि पत्रकारिता का कोर्स कर के मैं किसी भी अखबार या टीवी न्यूज चैनल में काम कर सकती हूं। लेकिन समय बीतता गया और मुझे मेरे अंदर की विशेषताओं और खामियों के बारे में समझ आती गई। जब मैंने यह कोर्स ज्वाइन किया था तब लिखने-पढ़ने का शौक नहीं था। लेकिन इस दिशा की ओर बढ़ने के लिए जब से सोचा अपने आप पढ़ने-लिखने का शौक भी जाग उठा। हालांकि इस साल ने मुझे अपने कॅरियर का चुनाव करने में बहुत मदद की। 

पत्रकारिता में आना मेरा मकसद नहीं था लेकिन अब पत्रकारिता ने ही मुझे एक नया मकसद दिया है। इस राह पर बढ़ने और अपने पैरों पर खड़े होना अब जिंदगी की ख्वाहिश है। साथ ही इस क्षेत्र में कुछ करने और आगे बढ़ने का सपना ही मेरे लिए प्रेरणा बना। वहीं मम्मी पापा का साथ और टीचर्स का मोटिवेट करना, हमेशा ही मेरे लेखन की सराहना करना  इस प्रेरणा को हौसला देता रहा। हालांकि इस क्षेत्र में आने के लिए प्रेरणा की जरूरत नहीं है क्योंकि यह अपने आप में खुद एक प्रेरणा है।

पिछले साल इस कॉलेज ने मेरे जीवन को जहां एक नई दिशा दी वहीं कुछ ऐसे दोस्त भी मिले जिन्होंने मुझे यह महसूस कराया कि आई एम आल्सो स्पेशल”। और जो कि शायद इसके पहले मैंने कभी महसूस नहीं किया था। यह लोग कब मेरे जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गए ये शायद मुझे भी नहीं पता चला। एक ऐसा हिस्सा जो कि मैं शायद अगर कभी भूलना भी चाहूं तो भूल नहीं सकती हूं। इस साल ने मुझे कुछ मीठे तो कुछ खट्टे अनुभव भी दिए। जहां टीचर्स का साथ, उनका मोटिवेट करना, अक्सर ग्रुप में होती नोक झोंक, एक दूसरे को समझना और समझाना, रूठने पर एक दूसरे को मनाना, क्लास की मस्ती सबको किसी का नाम लेकर चिढ़ाना और भी ऐसी बहुत सी बातें मीठी यादों का हिस्सा बनी तो वहीं यह भी सीखने को मिला कि जीवन ही नहीं पत्रकारिता में भी किसी पर भी आंख बंद करके भरोसा करना एक गलती साबित हो सकती है। इस साल से मुझे हर प्रकार का अनुभव मिला। मैंने अपनी गलतियों को समझा और कोशिश की कि उनसे कुछ सीख भी सकूं। मेरी जिंदगी का बस एक ही मकसद है कि मैं बिना किसी का सहारा लिए अपनी मर्जी के मुताबिक अपनी जिंदगी जी सकूं। बचपन से ही सुना था कि लड़कियों के दो घर होते हैं। एक उनके पिता का और दूसरा उनके पति का। वहीं मेरा सपना है कि मेरा अपना एक घर हो जिसे कि मैं अपना कह सकूं। इस सपने को पूरा करने के लिए यह आवश्यक है कि मैं सेल्फ डिपेंडेंट बनूं। 

पिछले साल ने मुझे बहुत कॉन्फिडेंस दिया। अपने कॅरियर में क्या करना है यह चुनाव करने में मदद की। अब मैं पत्रकारिता के क्षेत्र में एक सम्माननीय छवि बनाना चाहती हूं। पत्रकारिता के इतने माध्यमों में मेरा रुझान प्रिंट मीडिया की ओर अधिक है क्योंकि लिखना मेरा शौक है। मेरा मकसद एकमात्र यह है कि मैं एक दिन वह मुकाम हासिल करूं जिसकी कल्पना मैंने भी नहीं की है। मेरे मां पापा की दिली तमन्ना है कि मैं अपने पैरों पर खड़ी होऊं। मुझे किसी पर निर्भर ना रहना पड़े। इस साल इस कॉलेज में रहने के बाद मुझे इस बात का अंदाजा हो गया कि इस क्षेत्र के जरिए मैं अपनी सारी इच्छाओं को पूरा कर सकती हूं। बस मेहनत हमें खुद करनी है, क्योंकि बिना कुछ किए तो मिल नहीं जाता और बचपन से ही सुना भी है कि
                   
''परिश्रम ही सफलता की कुंजी है''

सुना है लोगों का नाम ही उनकी पहचान होती है।वैसे ही मेरा नाम ही मेरी पहचान है, लेकिन अपने नाम को पहचान देना थी। मेरी इस इच्छा ने उड़ान पिछले साल पत्रकारिता के क्षेत्र में आने के बाद ही भरी। इसीलिए पिछला साल मेरे जीवन का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। अब बस एक ही तम्मना है जल्द से जल्द अपने मुकाम को हासिल कर अपने मां-पापा का सपना पूरा करूं। 


निजता का अधिकार

                                निजता हमारा मूल अधिकार 



सुप्रीम कोर्ट ने गुरूवार को निजता के अधिकार पर एक अहम फैसला दिया है। सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश जे एस खेहड़ की अगुवाई वाली 9 न्यायाधीशों की पीठ ने निजता के अधिकार को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकार करार दिया है। यह अनुच्छेद हमारे जीवन की और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सुनिश्चित करता है। वहीं न्यायालय ने अपनी बात को स्पष्ट करते हुए कहा कि निजता मानवीय गरिमा का संवैधानिक मूल है। न्यायालय के इस फैसले का आधार के इस्तेमाल पर निश्चित ही असर पड़ेगा। वहीं निजता के अधिकार के लिए लंबे समय से  जंग कर रहे योद्धाओं की भी जीत हुई है।
निजता का अर्थ किसी व्यक्ति की निजी बातें या निजी जानकारियों से होता है। ऐसी बातें जो कि वह किसी के साथ नहीं बांटना चाहता है।  ऐसे ही किसी अन्य व्यक्ति को भी यह अधिकार नहीं होता है कि वह किसी की निजी जानकारी बिना उसकी स्वेक्षा के ले सके। ऑक्सफोर्ड शब्दकोश के मुताबिक निजता एक ऐसी स्थिति है जिसमें किसी व्यक्ति को ना तो दूसरा व्यक्ति परेशान करता है और ना तो उस पर नजर रखता है। इसके मुताबिक निजता को 'सार्वजनिक निगाह से मुक्त होने की स्थिति' बताया गया है। इस लिहाज से कोई किसी को अपनी निजी जानकारी  देने के लिए बाध्य नहीं कर  सकता है।
अब जबकि निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार माना गया है तो आधार कार्ड का क्या होता है यह सवाल उठना लाज़मी है, क्योंकि हाल ही में आधार कार्ड से जुड़ी कई याचिकाएं न्यायालय में  दायर हुई थी। जिनके जरिए लोगों ने यह शिकायत रखी कि हर जगह आधार कार्ड लगाना सुरक्षित नहीं रहता है। उसके जरिये उनकी निजी जानकारियां आसानी से कोई भी निकाल सकता है।  याचिकाओं का आधार था कि आधार कार्ड की वजह से निजता का हनन होता है या नहीं ? हालांकि इस पर सुनवाई न्यायालय में तीन सदस्यिय संविधान पीठ करेगी। अब जबकि निजता को मूल अधिकार माना गया है तो इस पीठ के लिए फैसला करना आसान होगा। आधार से निजता का उल्लंघन होता है कि नहीं अब इस सवाल का जवाब खोजना भी आसान हो गया। हालांकि यदि आधार कार्ड के व्यापक इस्तेमाल पर रोक लगी तो सरकारों को अपनी बहुत सी योजनाओं में उचित बदलाव करने होंगे।
सालों से निजता का अधिकार एक पहेली बना हुआ था कि आखिरकार निजता मूल अधिकार है या नहीं? क्योंकि निजता के अधिकार पर पहले हुई सुनवाइयों में  1954 में एम पी शर्मा  मामले में   आठ जजों की बेंच ने और  1962 में खड़क सिंह मामले में छह जजों की बेंच ने  इससे असहमति जताई थी। वहीं निजता का मामला दोबारा सुर्खियों में आधार कार्ड के व्यापक इस्तेमाल की वजह से आया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि सरकार और निजी कंपनियां विभिन्न योजनाओं और सेवाओं के लिए आधार के इस्तेमाल को अनिवार्य करती जा रही थी। 2012 में कर्नाटक उच्च न्यायालय से सेवानिवृत्त न्यायाधीश पुत्तस्वामी ने याचिका दायर कर सर्वोच्च न्यायालय में कहा था कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकार है। वहीं फैसला उनके पक्ष में भी आया है।
भारत एक लोकतांत्रिक देश है। साथ ही  हमारे देश में सबको स्वतंत्रता से रहने की अधिकार है। सभी लोग अपना जीवन अपने तरीके से जीने के लिए स्वतंत्रता है। व्यक्तियों के लिए उनकी निजता उनका अधिकार होती है लेकिन अभी तक यह स्पष्ट नहीं था कि निजता मूल अधिकार है कि नहीं है। लेकिन अब 9 न्यायाधीशों की पीठ ने इसको मूल अधिकार बताया है इससे अब यह बात साफ हो चुकी है कि सरकार या कोई भी किसी भी व्यक्ति की निजता में खलल नहीं डाल सकते है।
इस फैसले से निश्चित ही आधार कार्ड पर अधिक प्रभाव पड़ेगा। क्योंकि अब हर जगह चाहे सरकार हो या कोई निजी कंपनियां सभी  आधार कार्ड की मांग करती थी। वहीं  अनिवार्य होने के कारण हर किसी को मजबूरन आधार कार्ड लगाना ही पड़ता था। यहां तक की कई बार देखा गया कि कई कंपनियों में जब कोई नौकरी के लिए जाता था तब वहां भी आइडेंटिफिकेशन और प्रूफ के लिए भी आधार कार्ड ही मांगा जाता था। लेकिन उनकी सुरक्षा के कोई इंतजाम नहीं होते हैं। वैसे ही सरकार भी आधार कार्ड के इस्तेमाल को व्यापक रुप से बढ़ाती जा रही थी। लेकिन उसके लिए उन्होंने कोई सिक्योरिटी के इंतजाम नहीं किए थे। आधार कार्ड के जरिए हमारी हर तरह की  निजी जानकारियां इधर-उधर हो सकती थी । लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले से आधार कार्ड पर भी उचित कदम उठाए जा सकते हैं।
हमारे देश में डेटा सुरक्षा को लेकर अक्सर सवाल उठते हैं। लेकिन इस दिशा की ओर कदम उठते नहीं दिख रहे थे। लेकिन अब निजता के मूल अधिकार बनने के बाद शायद इस दिशा की ओर भी कुछ उचित बदलाव देखने को मिलें। न्यायालय के इस फैसले के बाद अब शायद लोगों की निजी जानकारियाें को सुरक्षित रखने के लिए कुछ व्यापक फैसले जरूर लिए जाएंगे। जिससे कि वह लोगों को भी सुरक्षित रख सकें और एक विश्वास पैदा कर सकें कि उनकी निजी जानकारियां सुरक्षित हैं।

इंसा नही इंसानियत के काबिल


                                              इंसा  नही इंसानियत के काबिल     

25 जून को डेरा प्रमुख राम रहीम के दोषी करार दिए जाने के बाद अब राम रहीम को दो रेप के मामलों में 20 साल की सजा दी गई है। इसके मुताबिक अगले 20 साल तक नहीं उसे अपने किए का भुगतान करना पड़ेगा। सालों से लोगों का भगवान बना राम रहीम तो एक सच्चा इंसान भी न साबित हुआ। इसके साथ ही  उसके और भी कई कारनामें सामने आए और आरोप लगे। राम रहीम पर अपनी सच्चा डेरा के आदमियों को नपुंसक बनाने और कई अन्य युवतियों का शोषण करने की बात सामने आई। वैसे भी कहते कि पाप का घड़ा कभी ना कभी भरता जरूर है। यह बात राम रहीम ने जरूर अपने किसी ने किसी प्रवचन में जरूर कही होगी। तब वह यह नहीं जानते होंगे कि उनके पाप का घड़ा भी करेगा। हालांकि इस फैसले के साथ यह बात भी साबित हो गया कि हमारे देश में कानून ही सबसे बड़ा है। चाहे किसी का आैधा कितना भी बड़ा हो लेकिन उसे अपनी की गई गलतियों की सजा जरुर मिलती है।
इंसा को दोषी करार दिए जाने के बाद उसके समर्थक कौन है काफी बवाल किया। इस मामले के बाद में एक बहुत गहरा सवाल उमड़कर आया आखिर लोग जिन्हें भगवान मानते हैं, वह इतने बड़े शैतान कैसे हो सकते है? हमारे देश में लोगों को भगवान बनाना एक आम बात है,  लेकिन अगर आश्चर्यजनक बात कोई है तो वह यह कि उनके भक्त उनकी गलती जानने के बाद भी उन्हें  भगवान की पदवी पर कैसे रख सकते है?  वह कैसे भूल जाते हैं की असल भगवान अपने भक्तों को दुख में नहीं देख सकता और ना ही किसी की तकलीफ का कारण बन सकता है। लोग यह भूल जाते हैं कि आज उनके भगवान की वजह से जो लोग दुख में हैं या जिन लोगों को तकलीफ सहनी पड़ी है उनकी जगह वह भी हो सकते थे। लेकिन हकीकत में जब लोगों पर जब खुद बितती है तभी वह किसी की तकलीफ समझ सकते हैं। लोगों को यह समझना चाहिए किसी की भक्ति करना तो सही है लेकिन उसे भगवान बनाकर खुद अंधभक्त बनना गलत है।

महिलाओं को अब नहीं होगी तीन तलाक की फांसी

मुस्लिम महिलाओं को अब नहीं होगी तीन तलाक की फांसी

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को तीन तलाक पर फैसला सुनाते हुए मुस्लिम महिलाओं को हमेशा के लिए तीन तलाक के फंदे से आज़ाद कर दिया। फैसला सुनाने के लिए बैठे पांच जजों में से तीन जजों ने तीन तलाक को असंवैधानिक करार दिया। दो जजों ने तीन तलाक को गलत माना लेकिन उन्होंने कहा कि इसके खिलाफ कानून सरकार बनाएगी। जिसके लिए सरकार को छह महीने का समय दिया गया है। तीन तलाक खत्म करने के फैसले से भारत की नौ करोड़ मुस्लिम महिलाओं  को अब टार्चर से रोका नहीं जा सकता। सुप्रीम कोर्ट के इस अहम फैसले के बाद मुस्लिम औरतों को आजादी से जीने का हक प्राप्त होगा। भविष्य में उनके अधिकारों का हनन नहीं होगा। 
  हालांकि इस फैसले मौलाना लोगों ने सरासर इंकार कर दिया। 10 सितंबर को इस फैसले के संदर्भ में  आॅल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ की बैठक होगी।
   तीन तलाक पर मुस्लिमऔरतों ने पूछा कि आखिर तीन तलाख के बारे में कुरान में कहां लिखा है? जबकि कुरान में तीन तलाक का वर्णन कहीं नहीं है।

तीन तलाक पर  पांच महिलाओं की जीत

सुप्रीम का यह फैसला पांच महिलाओं की जद्दोजहद का नतीजा है। सायरा बानो, जाकिया सोमन,आतिया साबरी,गुलशन परवीन, इशरत जहां और आफरीन रहमान इस फैसले की जीत का सिरा इन पांचों से जुड़ा हुआ है। इन महिलाओं ने एक बार में तीन तलाक देने के खिलाफ कोर्ट में याचिका दायर करी थी।

इस ऐतिहासिक फैसले के बाद में नतीजा यह होगा कि कोई भी शौहर अपनी पत्नी को मनमाने ढंग से तीन तलाक नहीं दे सकेगा। औरतों के साथ नाइंसाफी नहीं हो पाएगी।

तीन तलाक पर जजों की टिप्पणी

प्रधान न्यायाधीश जे एस खेहर व जस्टिस अब्दुल नजीर तीन तलाक पर सरकार के  कानून बनाने की बात कही है। जबकि जस्टिस कुरियन जोसेफ, जस्टिस यू यू ललित, व जस्टिस आरएफ नरीमन ने तीन तलाक को पूरी तरह असंवैधानिक करार दिया। तीन तलाक के खिलाफ तीन जजों का बहुमत महीने के बाद तीन तलाक खत्म करने का फैसला दिया गया साथ ही सरकार को छह महीने के अंदर कानून बनाने का आदेश भी मिला।

कुछ अहम  टिप्पणियां

1. भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा यह फैसला किसी की हार या जीत का नहीं बल्कि मुस्लिम औरतों के संवैधानिक अधिकारों की जीत का है।

2. आरिफ मोहम्मद खान ने कहा कि मौलानाओं की शरीयत औरतों के साथ जुल्म करती है।

3. याचिका दायर करने वाली शायरी ने कहा तीन तलाक से मेरी जिंदगी बर्बाद हो गई

4. मेनका गांधी ने कहा कि उन्हें फैसले से खुशी है साथ ही उन्होंने यह भी बोला कि सरकार इस पर कानून जरुर बनाएगी। उन्हें कानून बनाने से कोई दिक्कत नहीं है।

कलिंग उत्कल एक्सप्रेस का भयावह मंजरः हादसा या लापरवाही.....?

कलिंग उत्कल एक्सप्रेस का भयावह मंजरः
हादसा या लापरवाही.....?


उत्तर प्रदेश में शनिवार की शाम फिर गम के बादल छा गए। चारों ओर लोगों की चीत्कार सुनने को मिली। कई लोग अपने परिवार को ढूंढ रहे थे तो कई लोग अपने परिवार के लोगों की हुई मृत्यु पर रोते बिलखते नजर आ रहे थे। पिछले साल 20 नवंबर 2016 को पुखरायां रेल हादसे  का मंजर लोगों के जेहन से अभी निकला भी नहीं था कि मुजफ्फरनगर में हुए रेल हादसे में एक बार फिर रेल की सुरक्षा को कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया है या यूं कहें फिर रेल की लापरवाही का खामियाजा मासूमों को भुगतना पड़ा।शनिवार की शाम कलिंग उत्कल एक्सप्रेस में सफर कर रहे यात्री यह सोच भी नहीं सकते थे कि उनके लिए उस शाम का मंजर इतना भयावह होगा। यात्री रेल में बैठने के पहले यह सोचते हैं कि रेल से सफर तो उन्हें सुरक्षित उनकी मंजिल तक पहुंचा देगा। लेकिन शायद अब उत्कल एक्सप्रेस के हादसे के बाद लोगों के मन में रेल के सफर की तस्वीर कुछ और ही होगी। इस हादसे के बाद लोगों के जेहन में रेल की सुरक्षा को लेकर संदेह उठना तो लाजमी है। 

मुजफ्फरनगर के खतौली में शनिवार शाम को पुरी से हरिद्वार जा रही कलिंग उत्कल एक्सप्रेस सिस्टम की घोर लापरवाही की वजह से हादसे का शिकार हो गई। इस हादसे में 30 से ज्यादा लोगों की मृत्यु की आशंका है। वहीं 150 से ज्यादा लोगों के घायल होने के बारे में पता चला है। हादसे का मंजर इतना भयावह था कि ट्रैन के लगभग कोच एक दूसरे के ऊपर चढ़े हुए थेउन्हीं में से एक कोच पटरी के किनारे बने एक घर में घुस गया था और दूसरा कोच एक कॉलेज में जा घुसा था। हालांकि इस हादसे का कारण सिस्टम की घोर लापरवाही बनी है। जानकारी के अनुसार पता चला कि ट्रैक पर आगे काम चल रहा था। जिसकी जानकारी चालक को नहीं मिल पाई थी। इसके लिए चालक को कॉशन की सूचना दी जानी थी जोकि समय से नहीं दी गई। सूचना समय से ना मिल पाने की वजह से यह हादसा हुआ। खतौली रेलवे स्टेशन से आगे जहां दुर्घटना हुई वहां पटरी पर काम चल रहा था। पटरी पर प्लेटे कसी जा रही थी  इस बात की पुष्टि वहां मौके पर पड़ी मशीनें और लाल कपड़े से हो रही थी।

पुखरायां में इंदौर-पटना एक्सप्रेस हादसे में 14 डिब्बे पटरी से उतरे थे। जिसमें 100 से ज्यादा यात्रियों की मौत हुई थी और 300 से ज्यादा लोगों के घायल होने की सूचना मिली थी। पुखरायां रेल हादसे में रेलवे की कई गलतियां सामने आई थी ट्रेन की रफ्तार भी ज्यादा थीट्रैक भी टूटा हुआ था। हादसे के समय रेलवे से हुई लापरवाहियों के बाद सिस्टम पर काफी सवाल उठे थे। उन लापरवाहियों के सामने आने के बाद यह माना जा रहा था कि आगे भविष्य में शायद इन गलतियों से सबक लिया जाएगा और दोबारा ऐसी स्थिति नहीं उत्पन्न होने दी जाएगी। लेकिन अब मुजफ्फरनगर में हुए और कलिंग उत्कल एक्सप्रेस हादसे ने यह साबित कर दिया है कि रेलवे प्रशासन को मासूमों की जिंदगी का कितना मोल है। हादसों में हुई लोगों की मौत का मुआवजा देना ही वह अपनी जिम्मेदारी समझते हैं। रेलवे की लापरवाहियों के चलते बार बार रेल हादसे हो रहे हैं जिसमें रेलवे की कई लापरवाहियाँ उजागर हुईं हैं। इन लापरवाहियों पर कुछ समय तक बात करके वहीं छोड़ दिया जाता है और फिर बात तब तक नही उठती है जब तक की दूसरा हादसा न हो जाए।

हालांकि पिछले 2 साल में कई रेल हादसे सामने आए 20 मार्च, 2015 को देहरादून से वाराणसी जा रही जनता एक्सप्रेस पटरी से उतर गई थी। इस हादसे में तकरीबन 34 लोग मारे गए थे। 20 नवंबर 2016 को कानपुर के पास पुखरायां में पटना-इंदौर एक्सप्रेस के 14 कोच पटरी से उतर गए थे। यह एक बड़ा रेल हादसा था जिसमें 150 से ज़्यादा लोगों की मौत हो गई 300 से ज्यादा लोग घायल हुए थे। 28 दिसंबर 2016 को अजमेर सियालदह एक्सप्रेस के पटरी से उतर जाने से 2 लोगों की मौत हो गई और कई यात्री घायल हो गए। यह हादसा बुधवार सुबह 5 बजकर 20 मिनट पर कानपुर से पचास किलोमीटर दूर इटावा रुट पर रुरा और मेठा स्टेशन के बीच हुआ। 22 जनवरी 2017 को आंध्रप्रदेश के विजयनगरम ज़िले में हीराखंड एक्सप्रेस के आठ डिब्बे पटरी से उतरने की वजह से तकरीबन 39 लोगों की मौत हो गई।

वहीं 2 अगस्त 2017 को दिल्ली-हावड़ा रेल मार्ग पर सुबह 8 बजे के करीब एक बड़ा हादसा होने से बच गया। लखनऊ जा रही स्वर्ण शताब्दी एक्सप्रेस ट्रेन के छठे और पांचवें डिब्बे की कपलिंग टूट गई थी जिसके कारण ट्रेन में झटके लग रहे थे। वहीं ट्रेन के सतर्क चालक ने समय रहते गड़बड़ी को समझकर आपातकालीन ब्रेक लगा दिए। यह घटना खुर्जा जंक्शन रेलवे स्टेशन के पास हुई थी। 

पिछले दिनों हुए कई हादसों ने यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या वाकई में रेल प्रशासन यात्रियों की सुरक्षा को लेकर सक्रिय है? क्या यात्रियों की सुरक्षा में भरपूर कदम उठाए जा रहे हैं? साथ ही एक यह बिंदु भी सामने आता है कि कहीं इन हादसों के पीछे कोई साजिश तो नहीं है। सरकार को इस बात की पूरी जांच करनी चाहिए कि आखिर इतने गंभीर हुए हादसों का कारण क्या है

वैसे तो किसी की मौत का जिम्मेदार होने पर उसे सजा दी जाती है। वहीं  इन रेल हादसों में कई मासूमों की मौत हो गई। जिसका एकमात्र कारण रेलवे प्रशासन के कुछ लोगों की लापरवाही थी। उन मासूमों की मौत की जिम्मेदार  उनकी लापरवाही बनी। अब उनके लिए क्या सजा निर्धारित होनी चाहिए इस बात का जवाब तो रेलवे प्रशासन ही दे पाएगा। 

अब देखने वाली बात यह है कि ऐसी लापरवाही करने वालों को सरकार क्या सजा देती है? क्या लोगों की जान इतनी सस्ती हो गई है कि उस पर इतनी लापरवाही बरती जा सकती है? जो यात्री पुरे विश्वास के साथ रेल में बैठते हैं उनके विश्वास के साथ तो खेल हो रहा है। अब इतनी बड़ी लापरवाही के बाद फिर प्रशासन मुआवजा देने की बात कहेगा। शायद सरकार मुआवजा तो दे सकती है लेकिन जिन्होंने अपने परिवार के लोगों को खोया है , जिनके परिवार उजड़े हैं क्या उनके परिवारों की खुशहाली वापस लौटा सकती है? हालांकि अब यह सवाल  आम हो चुका है क्योंकि बार-बार उठता है और हर बार सरकार पीड़ितों के प्रति संवेदना प्रकट कर इन सवालों से बच जाती है।

अब इस कलिंग उत्कल एक्सप्रेस हादसे के बाद रेलवे प्रशासन की जनता की ओर जवाबदेही निश्चित ही बनती है। उन्हें जनता को यह बताना होगा कि क्या आगे आने वाले भविष्य में रेल का सफर उनके लिए सुरक्षित रहेगा। एक तरफ रेल प्रशासन देश को मेट्रो की सुविधा देने की बात कर रहा है, देश में बुलेट ट्रेन चलाने की बात कर रहा है, वहीं दूसरी तरफ वर्तमान में मौजूद साधारण रेल यात्रा भी लोगों के लिए सुरक्षित नहीं है। रेल प्रशासन को यात्रियों को मेट्रो मुहैया कराने से पहले एक सुरक्षित सफर का विश्वास दिलाना होगा। 

आखिर रेल प्रशासन कब जागेगा? वह कब समझेगा कि लोगों की जिंदगी इतनी सस्ती नहीं है। जनता में विश्वास जगाने के लिए अब प्रशासन को इन हादसों की पूरी जांच करानी चाहिए। साथ ही रेलवे की सुरक्षा में कुछ ठोस कदम उठाने चाहिए जिससे कि लोगों का सफर खौफ में ना बीते।






सुप्रीम कोर्ट का अहम फैसला


सुप्रीम कोर्ट का अहम फैसला


हाल ही में शिक्षामित्रों को लेकर सुप्रीम कोर्ट द्वारा लिये गये फैसले से यह बात साफ हो चुकी है कि शिक्षा के साथ खिलवाड़ नहीं होने दिया जाएगा। 2013 में हुए शिक्षामित्रों के समायोजन को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार समायोजन रद्द कर दिया गया है। इस फैसले के अनुसार समायोजन के बाद जो शिक्षामित्र सह अध्यापक बने थे उन्हें उनके पद से हटा दिया गया है। फैसले के अनुसार अब शिक्षामित्रों को अपना सह अध्यापक का पद पाने के लिए पूरी योग्यता हासिल करनी होगी।  भविष्य में प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था के लिए यह एक उचित फैसला साबित हो सकता है।

26 मई 1999 को उत्तर प्रदेश सरकार ने एक आदेश जारी किया था।  इस आदेश के तहत शिक्षामित्र नियुक्त किए गए थे। यह भर्तियां दिन प्रतिदिन घट रहे शिक्षक और छात्रों का अनुपात को ठीक करने के उद्देश्य की गई थी। 1 जुलाई 2001 को सरकार ने एक और आदेश जारी कर इस योजना को और विस्तृत रुप प्रदान किया। सरकार ने जून 2013 में 172000 शिक्षामित्रों को सहायक शिक्षक के तौर पर समायोजित करने का निर्णय लिया। सरकार के इस फैसले से उस समय शिक्षामित्रों में खुशी की लहर दौड़ पड़ी। सरकार ने अपने लिए गए इस फैसले के दौरान इस बात पर विचार ही नहीं किया कि जिन शिक्षामित्रों को वह सहायक शिक्षक का पद देने जा रहे हैं, क्या वह इस पद के योग्य है भी या नहीं? वहीं इस फैसले के खिलाफ हाईकोर्ट में याचिका दायर की गई जिसके आधार पर हाईकोर्ट ने जरूरी योग्यता ना होने पर 12 सितंबर 2015 को शिक्षामित्रों का समायोजन रद्द कर दिया था। हालांकि इस फैसले का विरोध करते हुए शिक्षामित्र व राज्य सरकार  सुप्रीम कोर्ट गए थे। वहीं कोर्ट में यह मामला कुछ समय के लिए लंबित रहा। फैसला लंबित रहने के दौरान  172000 में से 138000 शिक्षामित्र सहायक शिक्षक के पद पर समायोजित कर दिए गए। 

वहीं समायोजन के बाद इतने समय से लंबित रहे मामले में आए फैसले से शिक्षामित्रों को बड़ा झटका लगा है। जहां कोर्ट ने समायोजन रद्द करने का फैसला लिया है वहीं कोर्ट ने शिक्षामित्रों को एक राहत भी दी है। शिक्षामित्रों को सहायक शिक्षक का पद दोबारा पाने के लिए जरूरी योग्यता हासिल कर दो भर्तियों में भाग लेने का मौका देने के लिए भी कहा है। साथ ही उनके अनुभव को भी प्राथमिकता देने की बात कही है। वहीं दूसरी ओर जो शिक्षक टीईटी की बजाय एकेडमिक मेरिट के आधार पर भर्ती हुए थे उन सहायक शिक्षकों को राहत प्रदान की गई है। साथ ही यह भी साफ कर दिया गया है कि सुप्रीम कोर्ट के अंतरिम आदेश पर टीईटी की मेरिट के आधार पर नियुक्त हो चुके 66655 सहायक अध्यापकों की भर्ती को नहीं छेड़ा जाएगा। 
असल में इस ओर ध्यान तब दिया गया जब योग्य शिक्षक बेरोजगार थे और अयोग्य व्यक्ति शिक्षक बने हुए थे। प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ा रहे लगभग शिक्षकों को सही शब्द तक लिखने नहीं आते थे। ऐसे में  यह सोचने वाली बात थी कि आखिर ऐसे शिक्षकों से बच्चे किस प्रकार की शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। इस प्रकार की शिक्षा व्यवस्था के अनुसार शिक्षा का स्तर दिन-प्रतिदिन नीचे ही जा रहा था। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट द्वारा लिया गया यह फैसला महत्वपूर्ण साबित हुआ। अब फैसले के अनुसार जबकि समायोजन रद्द कर दिया गया है ऐसे में बिना योग्यता के कोई भी व्यक्ति सह अध्यापक का पद नहीं पा पाएगा। साथ ही भविष्य के लिए भी इस तरह की स्थितियों से बचा जा सकेगा।

भविष्य के लिए यह फैसला लाभकारी साबित होगा क्योंकि यदि छात्रों को शिक्षा प्रदान करने वाले शिक्षक योग्य होंगे तो निश्चित बच्चे अच्छी शिक्षा पा सकेंगे। शिक्षक यदि योग्य ही नहीं होंगे तो बच्चे कैसी शिक्षा प्राप्त करेंगे इस बात का अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है। आज के बच्चे देश के लिए उसका कल का भविष्य है। वह हमारे देश की आने वाली पीढी है। यदि आज उनकी शिक्षा के साथ  खिलवाड़ होता है तो यह देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ होगा।

इस बात से कोई अनजान नहीं है कि किसी भी देश के लिए उसकी शिक्षा व्यवस्था ही उस का दर्पण होती है। इसीलिए शिक्षा के उच्च प्रतिमान गठित किए जाते हैं ताकि देश का विकास हो सके। यदि शिक्षा का उचित स्तर नहीं है तो वह देश की तरक्की के पथ पर अधिक समय तक आगे नहीं बढ़  सकता है। देश की तरक्की में उसकी शिक्षा व्यवस्था का बहुत बड़ा योगदान होता है क्योंकि आज के समय में अन्य किसी भी देश के शिक्षा स्तर से कोई अनजान नहीं है। देश का विकास उसकी शिक्षा व्यवस्था पर निर्भर होता है। ऐसे में यदि देश में उचित शिक्षा व्यवस्था नहीं स्थापित करी जाएगी तो इसमें कोई दो राय नहीं है कि अन्य देशों के मुकाबले देश  पिछड़ता ही चला जाएगा।

वहीं अब सुप्रीम कोर्ट द्वारा समायोजन रद्द करने के फैसले के विरोध में मौजूदा शिक्षामित्र स्कूल नहीं खोल रहे हैं। इस तरह प्रदेश के लगभग हजार स्कूल प्रभावित हो रहे हैं। वही कई प्रदेशों में शिक्षामित्रों ने धरना देकर अपनी मुश्किलों का हल मांगा है। इसके लिए प्रदेश सरकार को जल्द ही कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाने चाहिए।  सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुनाए गए फैसले के अनुसार जल्द से जल्द अखबारों में भर्तियों के लिए विज्ञापन देकर रिक्त पदों को भरें। ताकि इसके कारण पढ़ाई बहुत अधिक प्रभावित ना हो।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि मौजूदा शिक्षामित्र जोकि सुप्रीम कोर्ट के फैसले से प्रभावित हुए हैं वह निराश हैं परंतु उनके पास अभी भी मौका है वह जरूरी योग्यता हासिल करें और दो भर्तियों में शामिल होकर अपना पद दोबारा पा सकते हैं। साथ ही यूपी सरकार ने यह आश्वासन भी दिलाया है कि समायोजन रद्द होने के बाद भी किसी को नौकरी से नहीं हटाया जाएगा। ऐसी परिस्थितियों में सभी शिक्षा मित्रों को धैर्य से काम लेना चाहिए और सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान करते हुए उचित प्रयास करने चाहिए ताकि वह अपना पद वापस पा सकें।

आंदोलन से भविष्य नहीं सुधरता

                                               आंदोलन से भविष्य नहीं सुधरता


मध्यप्रदेश के मंदसौर में भड़की हिंसा ने एक बार फिर किसानों के कर्ज माफी के मुद्दे को उबार दिया है। मंदसौर में किसान कर्ज माफी के साथ उपज के लिए उचित मूल्य की मांग को लेकर आंदोलन कर रहे थे। वहीं उसी आंदोलन के दौरान फैल रही अराजकता को रोकने के लिए पुलिस ने भीड़ को काबू करने के लिए आंदोलन कर रहे किसानों पर फायरिंग की जिस दौरान 6 किसानों की मृत्यु हो गई। जिसके बाद आंदोलन में और भी उग्र व अराजक  रूप धारण कर लिया। वहीं जिस तरह आंदोलन उग्र रूप धारण कर रहा था इससे तो ऐसा प्रतीत होता है कि यह इंसान को खत्म करने का प्रयास ही नहीं किया जा रहा है या तो यह भी कह सकते हैं कि हिंसा को और बढ़ाने व भड़काने के लिए किसानों का सहारा लिया जा रहा था, नहीं तो यह सोचने वाली बात है कि हिंसा को इतने बड़े पैमाने पर  ले जाकर किसानों को मिल ही  क्या रहा है। वह तो बस अपने अपनों को खो ही रहे हैं। अपने इस रवैये से उन्हें क्या प्राप्त हो रहा है? वहीं  यदि समय रहते हालातों पर काबू पाने की कोशिश की गई होती, पहले ही इस बढ़ती समस्या का सही से आकलन कर लिया गया होता तो शायद मध्यप्रदेश में ऐसा मंजर न नजर आता।

वहीं मध्यप्रदेश में बढ़ती हिंसा को रोकने के प्रयास तो कम देखने को मिले बल्कि ऐसे माहौल का फायदा उठाते हुए राजनीतिक पार्टियां अपनी रोटियां सेकने  में लग गई। वह किसानों को भड़काने से बाज नहीं आ रही। हालांकि यह कोई नई बात नहीं है अक्सर देखा गया है कोई भी भड़कीले मुद्दे को लेकर सभी राजनीतिक पार्टियां एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाने लगती हैं। ना कि हालातों को संभालने की कोशिश करती हैं। वहीं साफ साफ देखा गया कि मध्य प्रदेश में आंदोलन कर रहे किसानों को भड़काने में कांग्रेस पार्टी का भरपूर हाथ रहा है। कई वीडियो भी वायरल हुए जिनमें कांग्रेस के नेता किसानों को वाहन जलाने के लिए कह रहे हैं। उनका कहना था कि '' तुम जलाओ, जो होगा वो बाद में देखा जाएगा''। यह सोचने वाली बात है कि आखिर वह चाहते क्या हैं? इससे तो सा प्रतीत होता है कि वह हिंसा को काबू में आने ही नहीं देना चाहते हैं।

यह किसानों को भी समझना चाहिए कि आखिर वाहन जलाने, रास्तों को जाम करने हिंसा करने से उन्हें क्या प्राप्त हो रहा है?  क्या इससे उनकी समस्याओं का हल निकल रहा है। ऐसा कुछ होगा कि नहीं यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन इस आंदोलन की वजह से आम जनता को जो परेशानी सहनी पड़ रही है उसके कारण  किसानों पर से उनकी सहानुभूति  अवश्य समाप्त हो जाएगी। इस तरह माहौल अशांतिपूर्ण ही बन रहा है।

भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहां की ज्यादातर आबादी कृषि पर निर्भर है। वहीं  इसमें भी कोई शक नहीं कि जहां भारत में गरीब किसान हैं तो वहीं बहुत  अमीर किसान भी हैं। वहीं यह सोचने वाली बात है कि जब आमतौर पर लोगों को अपनी आय के अनुसार टैक्स भरना पड़ता है, जिनकी आय कम होती है उन्हें  कम टैक्स तो जिनकी ज्यादा आय होती है उनको ज्यादा टैक्स भरना पड़ता है। यही नीति किसानों पर क्यों नहीं लागू होती है? किसानों को भी इस तरह की कर नीति के अंतर्गत लाना चाहिए। खेती से अर्जित आय के अनुसार उनको कर के दायरे में लाना या मुक्त करना यह तय करना चाहिए। जो कर नीति पूरे देश में लागू है उसी अनुसार यदि गरीब किसानों को कर मुक्त रखा जाता है तो वहीं अमीर किसानों पर कर लगाया जाना चाहिए। आखिरकार वह भी तो देश की अर्थव्यवस्था का हिस्सा है।

वहीं अक्सर देखा गया है कि किसान कर्ज द्वारा मिली राशि को खेती में लगाने के बजाय अपने निजी खर्च के लिए इस्तेमाल करते हैं। वह कर्ज द्वारा मिली राशि का दुरुपयोग करते हैं। साथ ही सरकार पर दबाव डालते हैं कि उनका कर्ज माफ किया जाए। यह भी सही है कि अधिकतर किसान अपने आप को पीड़ित दिखाकर कर्ज अदा करने से बचने की कोशिश करता है।

वहीं कुछ दिनों पहले नीति आयोग के सदस्य विवेक देवराय ने कृषि आय पर कर लगाने की वकालत की थी जिसे वित्तमंत्री ने सिरे से खारिज कर दिया था। साथ ही आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने भी यह सवाल उछाला था कि अमीर और गरीब किसानों में अंतर करने में क्या परेशानी है? साथ ही यही सवाल भी पूछा था कि राज्य सरकारें धनी किसानों को कर के दायरे में लाने के लिए क्यों कुछ नहीं कर सकती है? इसमें कोई शक नहीं कि इन सवालों पर व्यापक बहस होनी चाहिए। संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार केंद्र सरकार के पास कृषि आय पर कर लगाने का अधिकार नहीं है, इसलिए वह इस मामले में कुछ नहीं कर सकती। लेकिन राज्य सरकार चाहे तो इस दिशा में सोच विचार कर सकती हैं। लेकिन वह बखूबी जानती है कि यह मामला संवेदनशील है इसीलिए वह इसके लिए कुछ करने से हिचकती है। सरकारों को कुछ नहीं तो कम से कम इतना तो जरूर करना चाहिए कि खेती से अच्छी खासी कमाई करने वाले किसानों की जांच पड़ताल कराए तथा उन्हें कर के दायरे में लाने का प्रयास किया जाए। ऐसा करने में सबसे बड़ी बाधा तो राजनीतिक पार्टियों का रवैया है। वह अपने वोटबैंक खोने के चक्कर में इस समस्या का समाधान ढूंढने का प्रयास ही नहीं करते हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि ज्यादातर लोग अपनी आय को छुपाने के लिए कृषि का सहारा लेते हैं। इसके जरिए वह टैक्स चोरी करने में सफल होते हैं। टैक्स चोरी करने के लिए लोगों ने खेती को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। कृषि से अर्जित होने वाली आय कर मुक्त होने के कारण लोग अपना पैसा इसमें लगाने में ही समझदारी समझते हैं। कर्जमाफी गरीब किसानों के लिए तो सही उपाय है लेकिन वहीं इसका फायदा कुछ संपन्न किसान भी उठाते हैं। वह भी अपने आप को कर्ज माफी के दायरे में लाने के लिए इस का सहारा लेते हैं। किसानों को यह छूट उनके बिगड़े हालातों से निपटने के लिए दी जाती है नहीं इसका गलत फायदा उठाना देश की अर्थव्यवस्था के लिए ठीक नहीं है।

आखिर यह समझने वाली बात है कि क्या सिर्फ कर्ज माफी से किसान अपने हालात सुधार सकता है?  इस सत्य से कोई अपरिचित नहीं है कि भारत के औसत किसान गरीब हैं, लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि वहीं अमीर किसान भी हैं। किसानों को कर्ज माफी उनके बिगड़े हालात सुधारने के लिए दी जाती है। ऐसे ही 2008 में मनमोहन सरकार के वक्त 4 करोड़ 80 लाख किसानों का करीब 70 हजार करोड़  रुपये का कर्जा माफ किया गया था। जिस से उम्मीद करी जा रही थी कि इससे पैदावार बढ़ेगी और किसानों को जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई हो सकेगी।  लेकिन परिणाम कुछ और ही देखने को मिला था। किसानों ने कर्ज माफी के जरिए मिले लाभ को उत्पादकता बढ़ाने में इस्तेमाल नहीं किया। बल्कि जिन किसानों ने अपना कर्जा चुका दिया था उन्होंने खुद को ठगा हुआ महसूस किया उन्हें यह लगा उन्होंने गलती कर दी है।

किसानों का जो आंदोलन चल रहा है, चारों तरफ से जो अराजकता फैल रही है इसमें कोई दोराय नहीं कि निश्चित ही इसमें बीच में कुछ शरारती तत्व है। जो इस आंदोलन को बढ़ावा दे रहे हैं, नहीं तो देश का किसान कभी इतना निष्ठुर नहीं हो सकता कि देश को ही जलाने पर उतर जाए। इस पूरे संदर्भ की संपूर्ण जांच होनी चाहिए और जांच में देखा जाना चाहिए असल दोषी कौन है। कहीं यह राजनीतिक पार्टियों की साजिश तो नहीं है?  जो कि किसान के बहाने अपनी राजनीतिक रोटियां सेकना चाहते हैं।

वहीं एक बात और गौर करने वाली है कि क्या किसान केवल भाजपा शासित राज्य में ही परेशान है। ज्यादातर आंदोलन भाजपा शासित राज्यों में ही हो रहे हैं चाहे वो महाराष्ट्र हो, हरियाणा हो, राजस्थान हो या मध्यप्रदेश में हो। अगर देखा जाए तो कुछ समय बाद इन्हीं के आसपास गुजरात में चुनाव है। मंदसौर गुजरात बॉर्डर पर स्थित है इस प्रकार से कांग्रेस व अन्य पार्टियां मंदसौर में किसान के बहाने गुजरात को तो निशाना नहीं बनाना चाहते।

वहीं इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता देश में अगर किसानों को सबसे ज्यादा सहूलियत किसी ने दी है तो सिर्फ शिवराज सिंह चौहान सरकार ने दि है।  क्योंकि शिवराज शिवराज सिंह चौहान खुद किसान प्रष्ठभूमि से आते हैं तो वह उनकी समस्याओं को समझने का प्रयास भी करते हैं। शिवराज सिंह चौहान कि सरकार के दौरान वहां पर 1 लाख रुपए के कर्ज पर किसान 90,000 रुपए जमा करता है और जीरो परसेंट इंटरेस्ट पर किसानों को ब्याज दिया जाता है। वहीं सरकार ने आंदोलन के दौरान मरने वाले लोगों को मुआवजा राशि देने की बात की थी जिसकी शुरुआत उन्होंने 5 लाख रुपए से  की थी फिर उसको बढ़ाकर 10 लाख रुपए किया। अंत में मुआवजा राशि 10 लाख रुपए से सीधे 1करोड़ रुपए तक कर दी। जो कि आज तक की दी जाने वाली मुआवजा राशि में सबसे ज्यादा  राशि है।

किसानों को यह समझना चाहिए कि वह इस धरती के अन्नदाता हैं उन्हें इस तरह के उग्र आंदोलनों से किसानों को दूर रहना रहना चाहिए। शांतिपूर्ण माहौल बनाकर अपनी बातें मनवानी चाहिए।वहीं जब मध्य प्रदेश सरकार जब किसानों की से बातचीत करने तैयार है, उनकी मांगों को पूरा करने को तैयार हैं तो किसानों को भी उनका साथ देना ही चाहिए। वहीं सरकार भी अगर समय रहते उनकी समस्याओं को भांप जाती तो शायद किसानों को यह आंदोलन करने की जरूरत ना पड़ती। आंदोलन शुरु होने पर उसको रोकने के लिए कुछ व्यापक इंतजाम करने की जरूरत थी जो की नहीं किए गए। वहीं जब आंदोलन उग्र  हो गया तो बातचीत करने के लिए खुद  अनशन पर बैठ गए।  शिवराज सिंह चौहान समय रहते इस आंदोलन पर काबू पाने की कोशिश करते तो भोपाल से लेकर मंदसौर तक किसानों का आंदोलन ना फैलता।

क्या आज भी गौ हमारी माता है

                           क्या आज भी गौ हमारी माता है ?



''विनाश काले विपरीत बुद्धि'' आजकल उक्त पंक्तियां कांग्रेस पार्टी पर चरितार्थ होती हैं। हाल ही में केरल में यूथ कांग्रेस के कार्यकर्ताओं  ने मोदी विरोध के चलते सरे चौराहे पर गाय को काट करअपना असली चेहरा दिखा दिया। उन्होंने पहले गाय को काटा और फिर वहीं उसको पका कर थालियों में परसा भी। वहीं बड़े गर्व से इस को इन्होंने  बीफ फेस्टिवल का नाम दिया। ऐसी हरकतें कांग्रेस करती रही तो निश्चित तौर पर यह कहा जा सकता है कि आने वाले समय में कांग्रेस की स्थिति बद से बद्तर हो सकती है। इसमें कोई संदेह नहीं  कि इस तरह की हरकतों से लोगों की आस्था को चोट पहुंचेगी और निश्चित ही लोग इस पार्टी से दरकिनार होंगे। कांग्रेस मोदी लहर का विरोध करने के चक्कर में कुछ भी करने को उतारू है। यहां तक कि वह लोगों की आस्था को कुचलते हुए गाय जैसे मासूम जानवर को काटने से भी नहीं चूक रहे हैं।

इस बात से कोई अनजान नहीं की गाय हिंदू आस्था का प्रतीक है। इसे हमारे हिंदू धर्म में माता का रूप माना जाता है। भारतवर्ष में मां मानकर गाय को पूजा जाता है। वहीं  हम बचपन से यह सुन कर बड़े हुए ''गाय हमारी माता है,हमको सब कुछ आता है'' वहीं अब हालातों के चलते हम यह कह सकते हैं कि ''गाय हमारी माता है,यह अब किसी को नहीं आता है''। मौजूदा हालातों में आज यह सवाल सबकी जवान पर है 'क्या गाय आज भी हमारी माता है '? अगर है तो क्या कोई इंसान अपनी माता के साथ यह व्यवहार कर सकता है। जो कि आजकल गाय के साथ में हो रहा है। कभी धर्म के नाम पर, तो कभी राजनीतिक फायदे के लिए उसको मार काट कर उसका इस्तेमाल किया जाता है। वहीं कुछ लोगों ने इनकी रक्षा के नाम पर दल बनाकर लोगों को परेशान करना शुरू कर दिया।

हालही में हो रहे गाय के साथ व्यवहार को देखते हुए यह समझ पाना मुश्किल है कि क्या वाकई में हम आज हिंदुस्तान में रह रहे हैं। वह हिंदुस्तान जहां पर लंबे समय से गाय को एक मां का दर्जा दिया जाता रहा है। वहीं आज लोग इतने निर्लज्ज और कुंठित होते जा रहे हैं कि वह यह भूल जाते हैं कि वह एक मासूम जानवर है। जिसका इस्तेमाल वह अपने चंद फायदों के लिए कर रहे हैं। आखिर विश्वास नहीं होता है कि लोग इतने निर्लज्ज और कुंठित कैसे हो सकते हैं कि मानवता की बलि चढ़ाने से भी नहीं चूकते। आखिर यह सोचने वाली बात है कि क्या ऐसी बर्बरता को यूं ही माफ किया जा सकता है? जिन्होंने ऐसा घिनौना काम किया है क्या वास्तव में वह हिंदुस्तानी कहलाने के लायक है?

माना जा रहा है कि कांग्रेस यूथ पार्टी की इतनी हिम्मत इसलिए हो गई क्योंकि केरल जैसे राज्य में कम्युनिस्ट का शासन है। साथ ही वहां पर बीफ पर कोई प्रतिबंध भी नहीं है। वहां पर कांग्रेस अपना दल बनाना चाह रही है। इसके लिए वह किसी भी हद तक जाने को तैयार है। कांग्रेस को अन्य पार्टियों का विरोध करने से पहले अपने पार्टी संगठन के सुधार पर ध्यान देना चाहिए। हाल ही में हुए इस घटनाक्रम से स्पष्ट होता है कि कांग्रेस में अब नियंत्रण खत्म हो गया है। ऊपरी शीर्ष स्तर  कुछ कह रहा है तो वहीं निचले स्तर के कार्यकर्ता दूसरी हरकतें कर रहे हैं। इसका ताजा उदाहरण केरल में मनाया गया फेस्टिवल है। 

कांग्रेस ने उन कार्यकर्ताओं को निलंबित कर दिया है जो इस घटना के पीछे थे। लेकिन सिर्फ उनको निलंबित करने से कुछ नहीं होगा इसका विरोध जताने का मात्र यही उपाय नहीं है। इससे हो रही निंदा को ध्यान में रखते हुए पार्टी को ऐसे कार्यकर्ताओं को पार्टी से निकाल देना चाहिए। अगर कांग्रेस ने अपनी हरकतों को न सुधारा आने वाले हिमाचल प्रदेश के चुनाव पर भी असर पड़ सकता है।

भाजपा सरकार को भी गाय की सुरक्षा को लेकर अपनी नीति स्पष्ट करनी होगी। एक तरफ सरकार गाय की  खरीद फिरोद पर रोक रोक लगा रही है वहीं दूसरी तरफ स्लाॅटर हाउस को बार बार लाइसेंस दे रही है। उन्हें खुले में कत्लेआम करने के लाइसेंस दिए जा रहे हैं। अगर गाय और भैंस की खरीद फिरोद नहीं होगी तो यह स्लॉटर हाउस कैसे चलेंगे? यहां पर गाय कैसे पहुंचेगी? यहां पर मांस का निर्यात कैसे होगा? यहां पर या तो उन स्लॉटर हाउस के मालिकों के साथ धोखाधड़ी करी जा रही है या फिर हिंदुस्तान के 90 करोड़ हिंदुओं की आस्था के साथ विश्वासघात किया जा रहा है। सरकार को सबसे पहले यह स्पष्ट करना चाहिए कि गाय को लेकर उनकी नीति क्या है? इन्हें स्लॉटर हाउस के लाइसेंस रद्द करने चाहिए, इन्हें अवैध, असंवैधानिक घोषित करना चाहिए। इसके बाद गाय  की खरीद फिरोद पर रोक लगानी चाहिए। सरकार को अपनी दोहरी नीति में बदलाव करना चाहिए। सरकार जहां उत्तर भारत में अपना गाय को लेकर एक अलग नजरिया रखती है, वहीं असम, मेघालय, मणिपुर में एक अलग नजरिया है। वहां पर सरकार कभी गाय को लेकर कुछ खास कदम नहीं उठाती है। वहां वह कभी गाय के मांस को लेकर विरोध नहीं करती है। आखिर वह ऐसा क्यों करती है? इस बात से कोई अंजान नहीं है। वह ऐसा इसलिए करती है क्योंकि वह अच्छे से जानती है कि वहां के ज्यादातर लोग बीफ खाने वाले हैं। क्या हिंदुओं की आस्था देश काल के हिसाब से बदल जाती है? असम के हिंदुओं और उत्तर प्रदेश के हिंदुओं के बीच के अंतर को लेकर उनकी क्या नीति है? सरकार को यह निर्धारित करना चाहिए। अब अक्सर गाय पर बढ़ते अत्याचार को देखते हुए सरकार को ऐसी नीति का निर्माण करना चाहिए जिससे की गाय को ऐसी राजनीतिक क्रियाओं का सामना ना करना पड़े।

अाखिर देश में कब तक गाय को लेकर बवाल होता रहेगा? कब तक मासूम गायों  की जान जाती रहेगी? कब तक गाय को बचाने में लोगों की जान जाती रहेगी? आखिर यह अंधेरगर्दी कब तक चलती रहेगी? सरकार को इस को लेकर नई कुछ ठोस कदम उठाने चाहिए जो भी कारगर हो वो करना ही चाहिए। ताकि देश की एकता, अखंडता और सांप्रदायिक सौहार्द बना रहे। 


हमेशा गाय को लेकर कोई ना कोई घटना सामने आती रहती है। वहीं तथाकथित गौरक्षक गौरक्षा के नाम पर बेगुनाह किसानों को या आम इंसान को हमेशा परेशान करते रहते हैं। ऐसी खबरें हमेशा आती रहती है अगर सरकार को वाकई में इतनी फिक्र है तो इससे जुड़ी घटनाओं के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक कानून बनाना चाहिए। अभी कुछ समय पहले गुरूग्राम से एक मुस्लिम के साथ गौरक्षकों द्वारा की गई बर्बरता की घटना सामने आई थी। जिसमें उन रक्षकों ने उसे मार मार कर मौत के घाट उतार दिया था।

भारत में 29 में से 10 राज्य ऐसे हैं जहां गाय, बछड़ा, बैल, सांड और भैंस को काटने और उनका गोश्त खाने पर कोई प्रतिबंध नहीं है। बाकी 18 राज्यों में गौ हत्या पर पूरी आंशिक रोक है। भारत की पूरी आबादी में लगभग 90% हिंदू हैं और यह मान्यता है कि हिंदू गाय को पूजते हैं लेकिन वहीं एक सच यह भी है कि दुनिया भर में बीफ का सबसे ज्यादा निर्यात करने वाले देशों में से भारत भी एक है। जिन राज्यों में गाय को काटने पर पूर्ण प्रतिबंध है वहां गौ हत्या कानून के उल्लंघन करने पर कड़ी सजा व भारी जुर्माने का प्रावधान है। वहीं गुजरात में इसको लेकर सख्त कानून बनाए गए हैं जिसके तहत गौ हत्या करने पर लोगों को उम्र कैद की सजा व गाय की तस्करी करने वालों को 10 साल की सजा का प्रावधान है।

अब समय हो चुका है कि गौ रक्षा की बातों को केवल बातों तक ही ना छोड़ा जाए। बल्कि इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर कानून की स्थापना करना आवश्यक हो चुका है। गौ रक्षा को लेकर पूरे देश में एक समान कानून का निर्माण करना चाहिए, ताकि आए दिन देश को शर्मिंदगी का सामना ना करना पड़े। जहां पूरी दुनिया जानती है कि हिंदुस्तान के लिए गाय उसकी माता है। वहीं हिंदुस्तान में गाय के साथ जो व्यवहार किया जा रहा है निश्चित ही वह दुर्भाग्यपूर्ण है।

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जन्म होते ही बनते रिश्ते जिंदगी के अनमोल रिश्ते पालने में झुलता बचपन नए रिश्ते संजोता बचपन औलाद बनकर जन्म लिया संग कई रिश्तों को जन्म द...