आंदोलन से भविष्य नहीं सुधरता

                                               आंदोलन से भविष्य नहीं सुधरता


मध्यप्रदेश के मंदसौर में भड़की हिंसा ने एक बार फिर किसानों के कर्ज माफी के मुद्दे को उबार दिया है। मंदसौर में किसान कर्ज माफी के साथ उपज के लिए उचित मूल्य की मांग को लेकर आंदोलन कर रहे थे। वहीं उसी आंदोलन के दौरान फैल रही अराजकता को रोकने के लिए पुलिस ने भीड़ को काबू करने के लिए आंदोलन कर रहे किसानों पर फायरिंग की जिस दौरान 6 किसानों की मृत्यु हो गई। जिसके बाद आंदोलन में और भी उग्र व अराजक  रूप धारण कर लिया। वहीं जिस तरह आंदोलन उग्र रूप धारण कर रहा था इससे तो ऐसा प्रतीत होता है कि यह इंसान को खत्म करने का प्रयास ही नहीं किया जा रहा है या तो यह भी कह सकते हैं कि हिंसा को और बढ़ाने व भड़काने के लिए किसानों का सहारा लिया जा रहा था, नहीं तो यह सोचने वाली बात है कि हिंसा को इतने बड़े पैमाने पर  ले जाकर किसानों को मिल ही  क्या रहा है। वह तो बस अपने अपनों को खो ही रहे हैं। अपने इस रवैये से उन्हें क्या प्राप्त हो रहा है? वहीं  यदि समय रहते हालातों पर काबू पाने की कोशिश की गई होती, पहले ही इस बढ़ती समस्या का सही से आकलन कर लिया गया होता तो शायद मध्यप्रदेश में ऐसा मंजर न नजर आता।

वहीं मध्यप्रदेश में बढ़ती हिंसा को रोकने के प्रयास तो कम देखने को मिले बल्कि ऐसे माहौल का फायदा उठाते हुए राजनीतिक पार्टियां अपनी रोटियां सेकने  में लग गई। वह किसानों को भड़काने से बाज नहीं आ रही। हालांकि यह कोई नई बात नहीं है अक्सर देखा गया है कोई भी भड़कीले मुद्दे को लेकर सभी राजनीतिक पार्टियां एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाने लगती हैं। ना कि हालातों को संभालने की कोशिश करती हैं। वहीं साफ साफ देखा गया कि मध्य प्रदेश में आंदोलन कर रहे किसानों को भड़काने में कांग्रेस पार्टी का भरपूर हाथ रहा है। कई वीडियो भी वायरल हुए जिनमें कांग्रेस के नेता किसानों को वाहन जलाने के लिए कह रहे हैं। उनका कहना था कि '' तुम जलाओ, जो होगा वो बाद में देखा जाएगा''। यह सोचने वाली बात है कि आखिर वह चाहते क्या हैं? इससे तो सा प्रतीत होता है कि वह हिंसा को काबू में आने ही नहीं देना चाहते हैं।

यह किसानों को भी समझना चाहिए कि आखिर वाहन जलाने, रास्तों को जाम करने हिंसा करने से उन्हें क्या प्राप्त हो रहा है?  क्या इससे उनकी समस्याओं का हल निकल रहा है। ऐसा कुछ होगा कि नहीं यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन इस आंदोलन की वजह से आम जनता को जो परेशानी सहनी पड़ रही है उसके कारण  किसानों पर से उनकी सहानुभूति  अवश्य समाप्त हो जाएगी। इस तरह माहौल अशांतिपूर्ण ही बन रहा है।

भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहां की ज्यादातर आबादी कृषि पर निर्भर है। वहीं  इसमें भी कोई शक नहीं कि जहां भारत में गरीब किसान हैं तो वहीं बहुत  अमीर किसान भी हैं। वहीं यह सोचने वाली बात है कि जब आमतौर पर लोगों को अपनी आय के अनुसार टैक्स भरना पड़ता है, जिनकी आय कम होती है उन्हें  कम टैक्स तो जिनकी ज्यादा आय होती है उनको ज्यादा टैक्स भरना पड़ता है। यही नीति किसानों पर क्यों नहीं लागू होती है? किसानों को भी इस तरह की कर नीति के अंतर्गत लाना चाहिए। खेती से अर्जित आय के अनुसार उनको कर के दायरे में लाना या मुक्त करना यह तय करना चाहिए। जो कर नीति पूरे देश में लागू है उसी अनुसार यदि गरीब किसानों को कर मुक्त रखा जाता है तो वहीं अमीर किसानों पर कर लगाया जाना चाहिए। आखिरकार वह भी तो देश की अर्थव्यवस्था का हिस्सा है।

वहीं अक्सर देखा गया है कि किसान कर्ज द्वारा मिली राशि को खेती में लगाने के बजाय अपने निजी खर्च के लिए इस्तेमाल करते हैं। वह कर्ज द्वारा मिली राशि का दुरुपयोग करते हैं। साथ ही सरकार पर दबाव डालते हैं कि उनका कर्ज माफ किया जाए। यह भी सही है कि अधिकतर किसान अपने आप को पीड़ित दिखाकर कर्ज अदा करने से बचने की कोशिश करता है।

वहीं कुछ दिनों पहले नीति आयोग के सदस्य विवेक देवराय ने कृषि आय पर कर लगाने की वकालत की थी जिसे वित्तमंत्री ने सिरे से खारिज कर दिया था। साथ ही आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने भी यह सवाल उछाला था कि अमीर और गरीब किसानों में अंतर करने में क्या परेशानी है? साथ ही यही सवाल भी पूछा था कि राज्य सरकारें धनी किसानों को कर के दायरे में लाने के लिए क्यों कुछ नहीं कर सकती है? इसमें कोई शक नहीं कि इन सवालों पर व्यापक बहस होनी चाहिए। संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार केंद्र सरकार के पास कृषि आय पर कर लगाने का अधिकार नहीं है, इसलिए वह इस मामले में कुछ नहीं कर सकती। लेकिन राज्य सरकार चाहे तो इस दिशा में सोच विचार कर सकती हैं। लेकिन वह बखूबी जानती है कि यह मामला संवेदनशील है इसीलिए वह इसके लिए कुछ करने से हिचकती है। सरकारों को कुछ नहीं तो कम से कम इतना तो जरूर करना चाहिए कि खेती से अच्छी खासी कमाई करने वाले किसानों की जांच पड़ताल कराए तथा उन्हें कर के दायरे में लाने का प्रयास किया जाए। ऐसा करने में सबसे बड़ी बाधा तो राजनीतिक पार्टियों का रवैया है। वह अपने वोटबैंक खोने के चक्कर में इस समस्या का समाधान ढूंढने का प्रयास ही नहीं करते हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि ज्यादातर लोग अपनी आय को छुपाने के लिए कृषि का सहारा लेते हैं। इसके जरिए वह टैक्स चोरी करने में सफल होते हैं। टैक्स चोरी करने के लिए लोगों ने खेती को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। कृषि से अर्जित होने वाली आय कर मुक्त होने के कारण लोग अपना पैसा इसमें लगाने में ही समझदारी समझते हैं। कर्जमाफी गरीब किसानों के लिए तो सही उपाय है लेकिन वहीं इसका फायदा कुछ संपन्न किसान भी उठाते हैं। वह भी अपने आप को कर्ज माफी के दायरे में लाने के लिए इस का सहारा लेते हैं। किसानों को यह छूट उनके बिगड़े हालातों से निपटने के लिए दी जाती है नहीं इसका गलत फायदा उठाना देश की अर्थव्यवस्था के लिए ठीक नहीं है।

आखिर यह समझने वाली बात है कि क्या सिर्फ कर्ज माफी से किसान अपने हालात सुधार सकता है?  इस सत्य से कोई अपरिचित नहीं है कि भारत के औसत किसान गरीब हैं, लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि वहीं अमीर किसान भी हैं। किसानों को कर्ज माफी उनके बिगड़े हालात सुधारने के लिए दी जाती है। ऐसे ही 2008 में मनमोहन सरकार के वक्त 4 करोड़ 80 लाख किसानों का करीब 70 हजार करोड़  रुपये का कर्जा माफ किया गया था। जिस से उम्मीद करी जा रही थी कि इससे पैदावार बढ़ेगी और किसानों को जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई हो सकेगी।  लेकिन परिणाम कुछ और ही देखने को मिला था। किसानों ने कर्ज माफी के जरिए मिले लाभ को उत्पादकता बढ़ाने में इस्तेमाल नहीं किया। बल्कि जिन किसानों ने अपना कर्जा चुका दिया था उन्होंने खुद को ठगा हुआ महसूस किया उन्हें यह लगा उन्होंने गलती कर दी है।

किसानों का जो आंदोलन चल रहा है, चारों तरफ से जो अराजकता फैल रही है इसमें कोई दोराय नहीं कि निश्चित ही इसमें बीच में कुछ शरारती तत्व है। जो इस आंदोलन को बढ़ावा दे रहे हैं, नहीं तो देश का किसान कभी इतना निष्ठुर नहीं हो सकता कि देश को ही जलाने पर उतर जाए। इस पूरे संदर्भ की संपूर्ण जांच होनी चाहिए और जांच में देखा जाना चाहिए असल दोषी कौन है। कहीं यह राजनीतिक पार्टियों की साजिश तो नहीं है?  जो कि किसान के बहाने अपनी राजनीतिक रोटियां सेकना चाहते हैं।

वहीं एक बात और गौर करने वाली है कि क्या किसान केवल भाजपा शासित राज्य में ही परेशान है। ज्यादातर आंदोलन भाजपा शासित राज्यों में ही हो रहे हैं चाहे वो महाराष्ट्र हो, हरियाणा हो, राजस्थान हो या मध्यप्रदेश में हो। अगर देखा जाए तो कुछ समय बाद इन्हीं के आसपास गुजरात में चुनाव है। मंदसौर गुजरात बॉर्डर पर स्थित है इस प्रकार से कांग्रेस व अन्य पार्टियां मंदसौर में किसान के बहाने गुजरात को तो निशाना नहीं बनाना चाहते।

वहीं इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता देश में अगर किसानों को सबसे ज्यादा सहूलियत किसी ने दी है तो सिर्फ शिवराज सिंह चौहान सरकार ने दि है।  क्योंकि शिवराज शिवराज सिंह चौहान खुद किसान प्रष्ठभूमि से आते हैं तो वह उनकी समस्याओं को समझने का प्रयास भी करते हैं। शिवराज सिंह चौहान कि सरकार के दौरान वहां पर 1 लाख रुपए के कर्ज पर किसान 90,000 रुपए जमा करता है और जीरो परसेंट इंटरेस्ट पर किसानों को ब्याज दिया जाता है। वहीं सरकार ने आंदोलन के दौरान मरने वाले लोगों को मुआवजा राशि देने की बात की थी जिसकी शुरुआत उन्होंने 5 लाख रुपए से  की थी फिर उसको बढ़ाकर 10 लाख रुपए किया। अंत में मुआवजा राशि 10 लाख रुपए से सीधे 1करोड़ रुपए तक कर दी। जो कि आज तक की दी जाने वाली मुआवजा राशि में सबसे ज्यादा  राशि है।

किसानों को यह समझना चाहिए कि वह इस धरती के अन्नदाता हैं उन्हें इस तरह के उग्र आंदोलनों से किसानों को दूर रहना रहना चाहिए। शांतिपूर्ण माहौल बनाकर अपनी बातें मनवानी चाहिए।वहीं जब मध्य प्रदेश सरकार जब किसानों की से बातचीत करने तैयार है, उनकी मांगों को पूरा करने को तैयार हैं तो किसानों को भी उनका साथ देना ही चाहिए। वहीं सरकार भी अगर समय रहते उनकी समस्याओं को भांप जाती तो शायद किसानों को यह आंदोलन करने की जरूरत ना पड़ती। आंदोलन शुरु होने पर उसको रोकने के लिए कुछ व्यापक इंतजाम करने की जरूरत थी जो की नहीं किए गए। वहीं जब आंदोलन उग्र  हो गया तो बातचीत करने के लिए खुद  अनशन पर बैठ गए।  शिवराज सिंह चौहान समय रहते इस आंदोलन पर काबू पाने की कोशिश करते तो भोपाल से लेकर मंदसौर तक किसानों का आंदोलन ना फैलता।

जिंदगी के अनमोल रिश्ते

जन्म होते ही बनते रिश्ते जिंदगी के अनमोल रिश्ते पालने में झुलता बचपन नए रिश्ते संजोता बचपन औलाद बनकर जन्म लिया संग कई रिश्तों को जन्म द...